भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रीतना / पंकज सुबीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुट्ठी में बंद हैं
कुछ सूखे हुए टुकड़े
अंधेरे के
हर एक टुकड़ा
प्रतीक्षारत है
कि उसे भी मिल जाए कोई नाम
किसी रिश्ते का नाम
मुट्ठी में बंद रेत
जब फिसलकर चली जाती है
तब रह जाते हैं
सीली हथेली पर लगे हुए कुछ कण
रेत के
ठीक उसी तरह
मुट्ठी में बंद हैं
ये सूखे हुए टुकड़े
मुट्ठी से फिसलकर कर गिरती हुई रेत
उसके तो कई नाम होते हैं
कहीं अतीत
तो
कहीं माज़ी
और हाथ पर चिपके रह जाते हैं
वे टुकड़े?
नाम तो उनके भी होते हैं
यादें
स्मृतियाँ
सुधियाँ
वगैरह वगैरह
लेकिन इन सूखे टुकड़ों को
क्या नाम दिया जाए?
और
क्यों दिया जाए?
ये फिसल क्यों नहीं जाते
हथेली पर से
रेत की तरह
क्यों चाहते हैं
मुट्ठी में क़ैद रहना
किसी रिश्ते के नाम का सहारा लेकर
हालाँकि जानते हैं
कि फिसल ही जाना है
अंत में
और छोड़ जाना है
उन रेत के कणों को
जोंक की तरह चिपका
खून चूसने के लिए
उम्र भर
फिर भी ये चाहते हैं
पाना कोई नाम
क्योंकि जानते हैं
यूँ ही मुट्ठी में बंद करके
नहीं रखा जा सकता
इनको
जब तक नहीं दिया जाए
कोई नाम
किसी रिश्ते का नाम
सोचते ही सोचते
खोल देता हूँ मैं
मुट्ठी
और उड़ा देता हूँ
उन अँधेरे सूखे टुकड़ों को
और फिर से रीत जाता हूँ
भोगने के लिए अपने
अकेलेपन को
जो अक्सर कम पीड़ादायक होता है
उस पीड़ा की तुलना में
जो यादें, स्मृतियाँ, सुधियाँ
वगैरह वगैरह
देती हैं
जोंक की तरह चिपक कर
चूसते समय
किसी रिश्ते के
हथेली से फिसल जाने के बाद