रीति रिवाज पच्छिमी हुइगे
लगै लाग पछियाहु
बीति गवै फागुन की बेला
आय गवा बैसाख
सबियों धरती आँवाँ लागै
धूरि भई अब राख
सहरन की लंग भाजि रहे हैं
लरिका अउरु जवान
हम जइसे बुढ़वन के जिउमा
अब ना बचा उछाहु
अपनि-अपनि सब रीति बनाये
अपनै-अपन सुनावैं
ख्यात-पात सब झूरे परे
घर बैठि मल्हारै गावैं
हुक्का-चिलम-तमाखू लौ का
सूझति नहिन ठेकान
है जवान बिटिया तीका अब
होई कसक बियाहु