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रीत कहती है / हरेराम बाजपेयी 'आश'

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रीत कहती है दफन के पूर्व,
लाश का शृंगार कर लो,
हो सके तो एक क्षण के ही लिये,
आश को तुम प्यार कर लो।

मैं अकेला चल रहा था, राह अपनी थी,
दर्द खुद ही सह रह था, आह अपनी थी,
क्या परेशानी हुई जो, साथ तुम चलने लगे,
और दो कदम के बाद ही, हम तुम्हें खलने लगे,
याद है तुमने कहा था, दोस्ती का इकरार कर लो।
रीत कहती है दफन के पूर्व लाश का शृंगार कर लो।
 रीत कहती है...

तन को तरसता रहा कि तू उलसी रहे,
मन को मारा इसलिये कि तू सदा हुलसी रहे,
धन को अपना प्यार था जिसको छिपाया ही नहीं,
सर्वस्व अर्पण कर दिया, इसका भी मुझको गम नहीं,
हाथ दो फैले हुए हैं भीख में और तुम इन्कार कर लो।
रीत कहती है दफन के पूर्व लाश का शृंगार कर लो।
 रीत कहती है...

कौन किसका साथ देता, साँस तक अपनी नहीं,
मांगने पर ज़िन्दगी क्या मौत तक मिलती नहीं,
सत्य और ईमान से अब आस्था उठाने लगी,
स्वार्थमय संसार में, साँस भी घुटने लगी,
अलविदा कह जा रहा हूँ, द्वार अपने बन्द कर लो,
रीत कहती है दफन के पूर्व लाश का शृंगार कर लो।
 रीत कहती है...