भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रीत से रहोगे कान्ह प्राण हूँ के मेरे प्राण / महेन्द्र मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रीत से रहोगे कान्ह प्राण हूँ के मेरे प्राण,
माखन ओ मलाई खूब रोज ही खिलाऊँगी।
भूषण विचित्र अंग दइहों अकुलाई होत
फूलन के सेज पर रोज ही सोलाऊँगी।
करिहों अनरीत तब गोरस छिनवाई दीहों
तबहीं तो बेटी बृषभान की कहाऊँगी।
द्विज महेन्द्र कृष्णचन्द्र मान जा हमारी बात,
राय से रहोगे तो फेर काल्ह आऊँगी।