रुकी-रुकी-सी / फ़िराक़ गोरखपुरी
रुकी-रुकी सी शबे-मर्ग खत्म पर आई.
वो पौ फटी,वो नई ज़िन्दगी नज़र आई.
ये मोड़ वो हैं कि परछाइयाँ देगी न साथ.
मुसाफ़िरों से कहो, उसकी रहगुज़र आई.
फ़ज़ा तबस्सुमे-सुबह-बहार थी लेकिन.
पहुँच के मंजिले-जानाँ पे आँख भर आई.
किसी की बज़्मे-तरब में हयात बटती थी.
उम्मीदवारों में कल मौत भी नज़र आई.
कहाँ हरएक से इंसानियत का वार उठा.
कि ये बला भी तेरे आशिक़ो के सर आई.
दिलों में आज तेरी याद मुद्दतों के बाद.
ब-चेहरा-ए-तबस्सुम व चश्मे-तर आई.
नया नहीं है मुझे मर्गे-नागहाँ का पयाम.
हज़ार रंग से अपनी मुझे खबर आई.
फ़ज़ा को जैसे कोई राग चीरता जाये.
तेरी निगाह दिलों में यूँहीं उतर आई.
ज़रा विसाल के बाद आईना तो देख ऐ दोस्त !
तेरे ज़माल कि दोशीज़गी निखर आई.
अजब नहीं कि चमन-दर-चमन बने हर फूल.
कली-कली की सबा जाके गोद भर आई.
शबे-'फिराक़'उठे दिल में और भी कुछ दर्द.
कहूँ मैं कैसे,तेरी याद रात भर आई.