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रुके बिन मुसाफिर जो चलते रहे / कैलाश झा 'किंकर'

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रुके बिन मुसाफिर जो चलते रहे
वही मंज़िलों तक पहुँचते रहे।

सुकूं के लिए लाख कोशिश हुईं
मगर चैन को हम तरसते रहे।

समूची कहानी थी झूठी मगर
यकीं था, उसी से बहलते रहे।

ज़बरदस्त बनने का सपना लिए
सफ़र के मुसाफिर गुज़रते रहे।

वहम में जो जीते रहे हैं सदा
पड़ोसी से हरदम वह डरते रहे।

निभाते हैं रिश्ते दिलो-जान से
मगर वह पराया समझते रहे।