रुक्मिणी परिणय / आठम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'
छली नारि सभ ठाड़ि कते चढ़ि ऊँच अटापर
निष्कलंक जनु हाथि पंक्तिमे अमित सुधाकर।
वातायनसँ झाँकि कते युवतीजन देखथि
बिजुलौता जनु ज्योति किरण बाहर दिस फेंकथि।
अपन-अपन चुनि उचित थल आबि आबि सभ वृत छली।
आँखि बिछौने टाढ़ि सभ यदुपति दर्शन हित छली।
लाल गुलाबक फूल जकाँ आनन शिशु सभहक
चकचक मुह चमकैत सरोरुह सम अछि युवकक।
कखनहुँ विकसित वृद्ध जनक सम्प्रति मुरझायल
कुसुमक पंक्ति समान मनुष्यक पंक्ति बुझायल।
जरठ युवा शिशु सभ सुभग समलंकृत पथ कातमे।
चित्र-लिखित सम मौनमुख अचल ठाढ़ अछि पाँतमे।
रूप हरिक अवलोकि विदर्भक लोक चकित अछि
लोचन लेत विराम किये ककरी? अवहित अछि।
आनन्दक स्वच्छन्द स्रोतमे मन अवगाहय
जन्म सफल श्रीमन्त अपन सभ भाग्य सराहय।
माधव-मुख छवि माधुरी मग्न हृदय जनताक अछि।
मधु पिबैत मधुकर जकाँ नहि क्षण ह्वैत फराक अछि।
श्यामक आनन-रूप कते युवतिक मन लूटल
रोम-रोमसँ स्वेदजलक शत सोती फूटल।
आँचर छाती परक ससरि नीचाँ दिस छूटल
ककरो रसना-बन्ध स्वयं कटितटसँ टूटेल।
आँखिक तारा माधवक मुख-मंडलमे लीन अछि।
छविक सरोवरके जेना लक्ष्य बनौने मीन अछि।
कहथि परस्पर मुग्ध, आइ सखि, सुन्दर देखल
दोसर देखब आब कतय? हम बहुत परेखल।
शृंगारक अवतार थिका की जनमनहारी
किवा सुर साकार कोनो अद्भुतद्यु तिघारी।
अंग-अंग रमणीयता प्रतिक्षण नव उमड़ैत अछि।
दशन-विभाऽवृत हास-मिष मुहसँ फूल झरैत अछि।
अंग-अंग सखि, सत्य अलौकिक छवि उमड़ैये
जतहि जाइ अछि आँखि विवश भय ततहि गड़ैये।
ई अद्भुत व्यापार आलि, हम कतहु न देखल
देखितहिं भेल विलुप्त हमर सुधि-बुधि मन जे छल।
सत्य व्रजक गोपी छलो छवि-सरितामे गेलि बहि।
कोन लौह अछि विश्वमे चुम्बकसँ आकृष्ट नहि?
नहि छथि केवल विश्वविदित सुन्दर वनमाली
आत्त मनुष्यक त्राण लेल चिर विश्रुत आलो!
जनदुखदायक कंस कते यम-मन्दिर गेला
अन्यायक पथ छोड़ि कते अपनहि सद भेला।
अनुपम छविक निधान ई जहिना नन्दकिशोर छथि।
तहिना दीनक आँखिसँ पोछि रहल पुनि नीर छथि।
रूपक केहन विधान! नयन-पथ जखनहि आयल
सूतल प्रेम पुनीत कोनो जनु उर उघियायल।
अकथ अनघ आनन्द स्रोतमे मन भसियायल
जन्म भरिक जनु दोष-दुरित अवलिम्ब पड़ायल।
एहने रूपक ध्यानमे मुनिजन मग्न रहैत छथि।
क्षुधा तृषा तनु धर्मसँ सुचिर अलग्न रहैत छथि।
ओ जननी सखि, धन्य जनिक सुत यदुकुल नन्दन
तनिकर धन्य सोहाग जनिक वर जन-मन चन्दन।
ओ धरणीतल धन्य जतय विचरथि दुख मोचन
धन्य विदर्भक लोक नयन भरि कय अवलोकन।
हरिक रूप गुण गानसँ नारी जन न अघाइ अछि।
रुक्मिणीक सुधि ह्वैत पुनि बहुत-बहुत पछताइ अछि।
राजकुमारिक विश्वविलक्षण छवि निर्माता
निश्चय वर अनुरूप तनिक ई रचल विधाता।
बुद्धिमान भय भूप बनथि की हेतु अनाड़ो
दिवसाधिपक समीप दीप केर कोन पुछारी?
शिशुपालक कय वरण नृप बड़ बनैत अज्ञान छथि।
दुर्लभ हीरा तजि कोना कोइला लेल हरान छथि?
दोष न अछि राजाक कहब हम बूझल बतिया
रुक्मिकुमारक, छी सुनैत सखि, ई दुर्मतिया।
दुर्जन नृपति जतेक जतय अछिद्व से सभ सटिया
भूपति वंश कुठार बनल अछि ओ अटपटिया।
सचिव सभ्य भूपक छला मनोनीत यदुवीर वर।
कय विरोध शिशुपालके पत्र पठौने अछि मुखर।
कते कचोटक बात, यज्ञचरु श्वान लैत अछि।
दूध पीत ओ साप, सभक जे प्राण लैत अछि।
वानर गर अनमोल मंजु मणि-माल लैत अछि
राजकुमारिक हाथ स्वकर शिशुपाल लैत अछि।
अनसोहाँत संबन्धसँ जखन लोक-मुख आह छै।
के कहि सकत कतेक मन रुक्मिणीक दुखदाह छै?
कन्या-जनक विधान विधाता व्यर्थ करै छथि
विवशताक अभिशाप जखन जीवनमे दै छथि।
सहज सुकोमल चित्त तते संकोच भरै छथि
अपन योग्य वर चयन लेल मुह बन्द करै छथि।
काँटक बीच गुलाब जे सृजथि सरोरुह पंकमे।
तनिका के की कहत जे रचथि कलंक मयंकमे?
जेठ कुमारक काज सखी अछि बड़ झरकल सन
नगरक लोक अशान्त बुझाइत अछि भड़कल सन।
सैन्य सहित हरि बन्धुयुगक अछि मन कड़कल सन
दोसर विविध विधान कोनो अछि जनु गड़कल सन।
देखक अछि दिन काल्हिये की लगैत रङताल छै।
बूझि पड़ै अछि सिंह लग असफल क्षद्र शृगाल छै।
अपन अपन मन कथा सकल जन व्यक्त करै छल
राजकुमारिक लेल मुरारिक गुण सुमिरै छल।
दुर्घट घठना घटक पुरुषसँ सभ गोहराबय
रुक्मिक विफल विचार करू हे देव दयामय।
हमर सबहुक जन्म भरि जे किछ संचित धर्म अछि।
रुक्मिणीक वर होथु हरि अर्पित सभ सत्कर्म अछि।
ज विवाह अछि ह्वैत हिनक नृपजासँ आली
रहता एतय अबैत सदा सुन्दर वनमाली।
दर्शन ह्वैत अजस्र रहत मुदमंगलदायक
करता जन्म कृतार्थ सहज जगतीतलनायक।
जे जनमानसमे बसथि बुद्धि रूप गिरिनन्दिनी।
फेरथु मति गोविन्दसँ जाथु बिआहलि रुक्मिणी।
हरिक मनोरम रूप जखन उर बीच अबै अछि
लोकक आनन विकच कुसुम सम विकसित ह्वै अछि।
जखन हृदय दुख दग्ध अबै छथि राजकुमारी
तत्क्षण ह्वै अछि सभक वदन-विधु झामर कारी।
सुमरि हरिक छवि हर्ष यदि रुक्मिणीक सुधि शोक अछि।
युग भावक दोला चढ़ल झूलि रहल सभ लोक अछि।
भूपक मन सन्ताप हमर की छल अभिलाषा
से सभटा गलि गेल जेना पड़ि पानि बतासा।
रुक्मिक नीच विचार बीचमे बाधक कारण
छल लिखैत मन राम लिखा गेल रक्तप रावण।
उत्सवमे आयल हरिक मुख छवि लोक लखैत अछि।
गारि पढ़त हमरा ककर के मुह बन्द करैत अछि?
प्रिय पाहुन लय संग नृपति संमदवन गेला
सैन्य सहित युग बन्धु ततय नृप अर्चित भेला।
सुन्दर भवन विशाल निवासक लेल सुसज्जित
अमरेशक प्रासाद निरखि जकरा छल लज्जित।
बड़ आदर सत्कार कय बहुविधि सुख सौविध्य दय।
अपनहुँ अन्तःपुर गेला वसुधाधिप नतभाल भय।
सुनि-सुनि गुण गाथा रूप चित्तापहारी
गिरिधरक कतेको कर्म कल्यााकारी।
विमन बहुत भेली सोचसँ राजदारा
अनवरत चलैये गर्म निश्वास-धारा।
आठम सर्ग समाप्त