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रुक्मिणी परिणय / एगारहम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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नन्दकुमार सदलबल यद्यपि छला पाछु किछु दूरहिं
अवगत सभ वृत्तान्त विदर्भक भेल बसातक पूरहिं।
हर्ष सलिल परिपूरित लागल द्वारवती उधिआय
पक्षक पंचदशी बुझि जहिना रत्नाकर लहराय।

विजयक शुभ संवाद परस्पर नगरक लोक कहै अछि
भीष्मक-राजसुता गुण गौरव कहि सुनि प्रमुदित ह्वै अछि।
जरासंघ आदिक संगरमे भेल जेना छल हारि
कहै सुनै अछि एकतान सभ सुख-दुख अपन बिसारि।

रुक्मिक नीच विचारक ऊपर कतहु चलै अछि टीका
आधा दाढ़ी मोछ कटल मुख भेल जेना छल फीका।
बलरामक हल-मुषल युद्धपर अछि चलैत अभिमान
मुदित करै अछि लोक गदक रण-कौशल केर बखान।

उग्रसेन सुनि सकुशल माधव बन्धु समेत अबै छथि
इन्दिराक अनुरूप रुक्मिणी विजयाधीन अनै छथि।
सचिव समाज बजा निर्देशथि नगर सुसज्ज कराउ
आदरयुत अरिआति अनै लय अचिर प्रमुख जन जाउ।

सन्तानक उत्कर्ष कथा श्रुतियुगमे जखन पड़ै अछि
मुदित कते छथि जननि दवकी के कहि कृती सकै अछि।
सात सुतक अवसान जनित उर ज्वलित सदा दुखदाह
आठम सुतक शुभोदयसँ दृग हर्षक अश्र-प्रवाह।

चलला नृप सामन्त सभासद सचिववृन्द चढ़ि स्यन्दन
चलला पुरिक प्रधान पुरुष सभ, ककरा उर आनन्द न?
सभसँ आगु छला रथ ऊपर त्रिकालज्ञ मुनि गर्ग
हरिक स्वागतक हेतु जाथि जनु गुरुक संग सुर वर्ग।

समारोह किछ दूर नगरसँ जखनहिं गेल तरंगित
युग जन यूथक भेल समागम हर्षक शब्द दिगंचित।
कुशल प्रश्न सह भेल प्रपंचित समुचित शिष्टाचार
चलल प्रवाह तखन निज नगरी युग मिलि एकाकार।

नायक कृष्ण विहीन छली बड़ विरहाकुल उत्कंठित
द्वारवती उन्मुक्तद्वार छथि हर्षित आइ अलंकृत।
मागधजनक मुखे हँसि गाबथि स्वागत गीत प्रशस्त
करथि केबाड़क आँचरसँ पुनि झाँपि अपन अंकस्थ।

द्वार-द्वार अछि विरचित तोरण, प्रतितोरण नवलतिका
लता लतापर कुसुम फुलायल कुसुम कुसुम अलि अलिका।
अलि कुल आनन मधुमय गुंजन, प्रति गुंजन आकर्ष
आकर्षित पिकबन्धु करय जनु हरि यश गान सहर्ष।

पथ बीथी सभ सुभग सुगन्धित पार्श्व देश पुष्पाकुल
हाट-बजारक अभिनव सुषमा धूप-दीप धुमाकुल।
रत्न भवन सभ बूझि पड़ै अछि थिक कुसुमक निर्माण
भीतर तरल तरंगित चमकथि तरुणी तड़ित समान।

नृत्य गीत संगीत चलै अछि नगरक भवन भवनमे
उत्साहक अछि भाव उजागर विद्यमान जन जनमे।
वृन्दक वृन्द वधूजन गाबथि कृष्ण चरितपर गीत
महापर्व दिन बझि मनाबथि उत्सव, प्रेम-पुनीत।

कयलनि नगर प्रवेश किशोरिक संग यशोदानन्दन
समाचार श्रुति-सुखद श्रवण कय मुदित सकल महिलाजन।
चढ़ि-चढ़ि भवनक उच्च अटापर तुरत होइ छथि तूल
गगनक गंगाधार फुलायल विपुल कमलिनिक फूल।

राजकुमारिक सुन्दरता लखि मुग्ध भेलो वनिता जन
बारंबार निरखि मुख कयलनि अर्पित अपन हृदयधन।
देखल सुनल जतय जे जकरा छल आदर्श-प्रतीक
रुक्मिणीक अवलोकि छटा-छवि से सभ बनल अलीक।

कहथि परस्पर विश्व सुदुर्लभ सुन्दरि राजकुमारी
जेहन सुनैत छलहुँ सखि, देखल मुख छविपर बलिहारी।
जहिना कृष्ण भुवन-सुन्दर छथि नृप पुत्रिक अनुरूप
तहिना कृष्णक नृपपुत्री छथि, युग जन योग अनूप।

जुडल कौमुदी कुमुद बन्धुसँ, धवल दीप्ति दिनकरसँ
विद्युत आबि जुड़ल सखि, निश्चय नील नवल जलधरसँ।
जोड़ी देखि एहन सम सुन्दर के नहि हैत प्रसन्न?
समुचित योग विरुद्ध विधाता धन्य आइ छथि धन्य।

राजकुमार किये सखि, कृष्णक व्यर्थ विरोध करै छल
बहिनिक योग्य एहन वर सुन्दर नहि मन पसिन पड़ै छल।
अछि मति मन्द केहन नहि अधला-नीक पड़ल किछु बूझि
भवितव्यक अनुसार विधाता देथि हृदय जनु सूझि।

भावो छल शिर लिखल दुर्दशा तदनुरूप फल पओलक
संगी साथी जते सहायक आह समर मुह बओलक।
छलथिन कृष्ण क्रुद्ध भय रणमे उद्यत लैपर प्राण
बहिनिक अविरल नोर बचओलक, नहि तँ मरण प्रमाण।

मरणहुँसँ बढ़ि भेल विमूढ़क दुर्गति सखी, समरमे
बनल विरूपवदन तमसायल चक्रधरक पड़ि करमे।
रणभूमिक प्रत्यक्ष मरणमे क्षण-पल मन दुख ह्वैत
रहत आब अपमान जन्म भरि काँट-जकाँ कचकैत।

भावी विधि भवितव्य विधाता बहुधोजै लक बये
सोच-विचार करी सखि, जँ किछ तथ्य न बूझि पड़ैये।
विधि आकाश-कुसुम सम कोनो नहि अछि प्रेरक तत्व
जँ अछि सत्य तखन पुनि ककरो काजक कोन महत्व?

भवितव्यक अनुसार करै अछि काज जखन संसारी
पाप-पुण्य यश-अयशक कोना हैत, कहू अधिकारी।
दैवक प्रेरित यन्त्र जकाँ जन जँ अछि काज करैत
अधला नीक फलक अछि कखनहुँ यन्त्र न पात्र बनैत।

अपने कर्म शुभाशुभ सजनी! भाग्य दैव विधि ह्वैये
अवसर पाबि फलक दिस उन्मुख प्रेरक सत्य बनैये।
माध्यम तकर बनै अछि हे सखि, पूर्वजन्म संस्कार
सुख-दुख सुपथ कुपथ दिस ते अछि प्रेरित ई संसार।

जीव जन्तु जगतक जते अछि आन्हर अन्ध तिमिरसँ
कर्मक फल सभ भोगि रहल अछि विविध देह धय चिरसँ।
किन्तु मनुष्यक बात भिन्न छै, प्रकृति करथि निर्देश-
देलहुँ बुद्धि विवेक, तिमिरसँ नर चल ज्योतिक देश।

शुभ कर्मक बलसँ दुर्दैवक कय अवसान सकैये
नीको कर्मक अशुभ कर्मसँ लय नर प्राण सकैये।
अमर मृकंडुक पुत्र ह्वैत छथि विफल जाथि घुरि काल
इन्द्रासन आसीन नहुष नृप बनथि दुरितवश व्याल।

ते नहि मुक्त मनुज अछि कखनहुँ अपना कर्मक फलसँ
यन्त्र जकाँ नहि काज करै अछि केवल अनका बलसँ।
कय सकैत अछि एकमात्र नर अपन भाग्य-निर्माण
नहि तँ उत्पथ पकड़ि करओ दुख-दुर्गति केर विधान।

क्यो की बूझि सकै अछि कखनहुँ की अछि भाग्यक रेखा?
केहनो विज्ञ विफल छथि हे सखि, मतिहीनक को लेखा।
रहितहुँ सत्य अनिश्चित भाग्यक के पुनि करत भरोस?
हाथ पैर बल बुद्धि विवेकक उद्यम नित निर्दोष।