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रुक्मिणी परिणय / एगारहम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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पथ अवरुद्ध प्रयत्नक लखि नर विह्वल जखन बनैये।
तखन-तखन विधिवादक लाठी पकड़ि ठीक ठहरैये।
सहज बुद्धिसँ युक्ति ताकि पुनि नमहर डेग भरैत
देखि रहल छी लक्ष्यभूमिपर अछि मानव पहुँचैत।

थाकल लोकक लेल क्षणिक विधिवाद बनओ अवलम्बन
आत्मघात थिक नर जीवनमे मानब तकर नियन्त्रण।
हारल लोक बजै अछि ओहिना फुरल जखन नहि युक्ति
हमरहुँ मुहसँ से चिर-चर्चित नियतिक आयल उक्ति।

धन्य हमर ई पुरी द्वारिका जकर कृष्ण सन नेता
नित नव नाटक केर विश्वमे एक अतुल अभिनेता।
रुक्मिणीक सन वधू सुन्दरी शौर्यक मूल्य चुकाय।
आनल गेह, हमहुँ सभ हे सखि लेलहुँ नयन जुड़ाय।

नन्दनकानन कल्पलता थिक देवपुरिक दुखहरणी
हिमगिरिसँ बहरायलि गंगा अवनिक मंगलकरणी।
भीष्मकराज सुता तँ संगहि उभय लोक अभिवृद्धि
लक्षण देखि परेखि हमर एहि तर्कक ह्वै अछि सिद्धि।

नारायण अखिलेश थिका सखि, वृन्दाविपिनविहारी
कहथि विबुधजन थिकी इन्दिरा भीष्मकराजकुमारी।
पावन भूमि विदेहक बुझि जनि जन्म सिरौर हिलेथि
नारी जन आदर्श जगतके युग त्रेतामे देथि।

अन्यायक प्रतिकूल पुरुष बल अक्षम जखन बनै अछि
कष्टक नहि बुझि अन्त जखन जन प्राण हकन्न कनै अछि।
रणचंडी बनि समर भूमिमे तखन तखन उतरैत
शुम्भ निशुम्भ महिष सन असुरक छथि संहार करैत।

जग कल्याणक लेल एखन सह-शक्ति पुरुष अवतरला
हरता भूमिक भार सदय ई गर्ग महामुनि बजला।
निर्दय नीच निरंकुशसँ अछि धरणि आइ आक्रान्त
तकर विनाशक संग सुननओता कर्मयोग सिद्धान्त

गुण-यश प्रमुदितहृदय बजै अछि द्वारकाक नरनारी
छथि जाइत जन निकर संग चल चक्रसुदर्शनधारी।
परम मनोरथ विभा वाम दिस फुल्लवदन बिहुँसैत
बूझि पड़ै छथि जेना जलद लग अछि बिजुली चमकैत।

कुंडिनपुरक नामसँ नगरक एक भाग अछि कल्पित
झंडा दिव्य विदर्भक तोरण शिखर उड़ै अछि अर्पित।
वैदर्भिक अनुरूप विनिश्चित गगनचुम्बि प्रासाद
राखल आनि तनय हरि मातामहक पाबि संवाद।

सखी समन्तिक संग देवको द्वारकाक महरानो
छली समागत कृष्णकुमारक बलितपलितमुख नानो।
नगरक माननीय महिला सभ छली द्वारिपर ठाढ़ि
विकच कमल मुख युवति समाजक छल आयल जनु बाढ़ि।

रथसँ उतरि जखन छवि प्रतिमा पदयुग भूमि धरै छथि
द्वारवतिक अर्चनमे झुकि जनि रक्त कमल दुइ दै छथि।
भद्रमुखी तत्काल सुभद्रा होथि पकड़ि कर संग
भउजिक सँग हर्षसँ ननदिक नीप कुसुम सम अंग।

जननी ममतामयी देवकी करथि मुदित नोराजन
गाबथि मंगल-मूल प्रफुल्लित गीत सकल महिलागन।
प्रणमथि चन्द्रमुखी नृपदुहिता झुकिझुकि सबहक पैर
कमल पंक्तिके करथि कलाधर नमन बिसरि जनु वैर।

छातो सभहुँ लगाबथि पुनि पुनि मंजु मधुर मुख चूमथि
मुग्धहृदय कय बेरि असीसथि, धन्य भाग्य कय बूझथि।
भूषण व्यर्थ तदपि पहिराबथि निज-निज रुचि अनुरूप
लज्जित नम्रमुखी अभिनन्दन स्वीकारथि रहि चूप।

आसन शयन सुकोमल सुन्दर समवयसक सङ नारी
चेरिक दल रुखि मुहक तकै अछि द्वार चतुर प्रतिहारी।
आँखिक पुतरी जकाँ रखै छथि मान्य जनी सभ ध्यान
वत्सलताक सरोवरमे जनु प्रभा करथि असनान।

कय आदर सम्मान यथोचित सबहुक कयल विसर्जन
अपनहु वास भवन दिस चलला बन्धुयुगल यदुनन्दन।
लक्ष्य सिद्ध अभियान सफल अछि नाओ रुकल तह जाय
शेष श्रुतिक अनुसार विवाहक रहल एक अध्याय।

उग्रसेन यदुकुल महराज। तुरत बजओलनि सभ्य समाज।।
सचिव सभासद जन विद्वान। अयला नगरक पुरुष प्रधान।।
त्रिकालज्ञ मुनि अयला गर्ग। होथि अशुभ भंजन जनि भर्ग।।
पूजि चरणयुग कहलनि भूप। गुरुवर की अछि शुद्धक रूप?

कय कन्याक हरण बलवान। करथि यदपि नहि वेद विधान।।
तामस तेष रहय अपमान। आबि करत के कन्यादान।।
अपन परिस्थितिमे अछि भेद। नहि कन्याक पिता मन खेद।।
ते विवाह दिन देखल जाय। लेबनि हुनका तखन बजाय।।

देवकोक मन बड़ उत्साह। धूमधामसँ हैत विवाह।
पत्ता बहुत ठाम अछि देय। इष्ट अपेक्षित छथि आनेय।।
आबि बिदर्भक भूप महान। करथु स्वयं निज कन्यादान।।
जखन सुनिश्चित दिन भय जैत। तदनुकूल आयोजन हैत।।

सोचि-समुझि ग्रहगति मुनिराय। बजला नृप नर निकर सुनाय।
बीतल शुद्ध अमरगुरु बक्र। ते चिर चलत अशुद्धक चक्र।।
होथि पुनः भृगुनन्दन अस्त। नहि शुभकर्मक लेल प्रशस्त।।
दक्षिण गमन करथि पुनि सूर। गेल विवाहक दिन चल दूर।।

ते अगहनमे हैत विवाह। जहिया अविकल विधु रहताह।।
कयलहुँ कालक नृप अभिधान। नहि अछि कोनो दिन लग आन।।
गर्ग मुनिक सुनि उक्ति सभ बुझि मन दूर विवाह।
आगु बनायब योजना कहि सभ जन उठलाह।।

एगारहम सर्ग समाप्त