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रुक्मिणी परिणय / चारिम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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जनसाधारण केर कथा की?
काँच धैल ताकत मुङड़ा की?
सफल मनोरथ चैद्य मनै छथि
हैत कोना की दैब जनै छथि।

अन्तःपुर सुनि वृत्त विवाहक
उठल बिहारि जेना उत्साहक।
डेग न ककरो भूमि भिड़ै अछि
धिया-पुता सभ उड़ल फिरै अछि।

पुनि पुनि रानी देथि निछावर
चेरि फिरै अछि भरि-भरि आँचर।
भूषण वसन जते जे पाबथि
नहि संकोच तुरन्त लुटाबथि।

पड़ल हकार नगर नारी-जन
आबथि झुंडक झुंड मुदितमन।
स्वागत करथि सभक नृपदारा
चन्द्रकला-सत्कृत जनु तारा।

कुल वनितासँ पूछि सुवाणी
विधि-व्यवहार करै छथि रानी।
देव पितर मन सुमरि मनाबथि
सखिक संग मिलि मंगल गाबथि।

सुरमंदिरमे रुचिर अर्चना
तीन प्रदक्षिण प्रणति प्रार्थना।
कते मनहिं मन कबुला पाती
आबय ब्याहि सवर बरिआती।

आमोदक वातावरण
भीतर बाहर व्याप्त छल,
किन्तु नृपति-मन कृष्णसँ
आतंकित पर्याप्त छल।

जरासंघ मगघाघिप आयल
दन्तवक्त्र नृप साल्व तुलायल
आयल वीर विदूरथ क्रोधी
पौंड्रक अतिशय कृष्ण-विरोधी।

लय लय संग अपन सभ सेना
पहुँचल प्रलयकाल घन जेना।
वैर भाव जकरा हरिसँ छल
सभ जुटि आयल दुष्ट सदलबल।

तिमिर करत मिलि रविसँ संगर
लड़त पुण्यसँ पाप समंगर।
दोष सकल मिलि गुणसँ जूझत
की अछि मोल अपन से बूझत।

चैद्यक चमू स्वयं छल सागर
आबि अनेक जुटल रत्नाकर।
महासिन्धु मिलि भेल अन्तमे
पसरि गेल छल दिग-दिगन्तमे।

हाथिक पाँती क्षितिज पार छल
आयल भूमि जेना जलदक दल।
वार-वार चिग्धार करै छल
अनुगुण मेघ जकाँ रव ह्वै छल।

कासक कोस भरल छल स्यन्दन
अस्त्र-शस्त्रसँ सज्ज रथिक जन।
हिनहिनाइ अछि उत्सुक घोड़ा
बनत बसात भिड़ल यदि कोड़ा।

वीर पदातिक विपिुल वाहिनी
लोक-दृष्टिसँ दूरगामिनी।
आयुध कर शिर शिरस्त्राण छल
कान्त कलेवर कवचवान छल।

अपन अपन आयुध सहित
प्रस्तुत सैन्य अशेष छल
गमन हेतु सेनापतिक
बस बाँकी आदेश छल।

गणक बजा लग्नक कय निश्चय
सभ प्रबन्धक अनुकूल तकर कय।
धराधीश द्विजवुंद बजौलनि
कौलिक शान्ति विधान करौलनि।

आनल गेल सुरभि जल धैला
द्विज-सम्मत शिशुपाल नहैला।
कयलनि पीत दकुलक धारण
डराडारि उपवीत सोहाओन।

भूषणसँ सभ अंग अलंकृत
भेल प्रफुल्ल बकुल तरु लज्जित।
आँखि पड़ल पुनि काजर कारी
जपाकुसुम जनु भृंगक धारी!

हेम-मुकुट शिर ऊपर चमकल
तैपर हार प्रसूनक गमकल।
स्वर्ण सुगन्धिक मिलन असंभव
छल से आइ भेल जनु संभव।

रानी आबि प्रफुल्लित आनन
अक्षत मिलित लगौलनि चानन।
गाबि गीत मृद-मंगल भाजन
कयलनि प्रेमसहित नीराजन।

महामत्त-गज कुंभ सुपत्रित
सुन्दर सुभग सकल विधि सज्जित।
चढ़ला त्वरित चेदिनृप-नन्दन
ऐरावत जनु नमुचि निकन्दन।

जरासन्ध आदिक नृप नामी
आयुधपाणि सजग सहगामी।
छल मुहपर अभिमान तरंगित
भीतर भयसँ प्राण प्रकम्पित।

जे सभहक अपराध करैये
ओ कौआ सदिकाल डरैये।
पापक पीपर सभखन काँपय
कृत्रिम भाव कहाँ घरि झाँपय?

चलला चेदि नरेश दृढ़
कय बरिआतिक संघटन।
बजला शंख-ध्वनि सहित
जय गणेश मंगलकरण।

चलल सैन्य बड़ सोर मचैये
की थिक दिग्गज चकित तकैये।
ता उड़ि धूलि पड़ल अति उर्मिल
मदयुत गंड बनौलक पंकिल।

हेजक हेज गजक चिग्घारब
विपुल तुरंग तुमुल हेषारव।
रथ घर्घर मानव मुख कलकल
भेल बहिर धरणी नभ दिग्दल।

भेल भारनत डगमग धरती
अतल पताल गमन जनि करती।
चंचल कच्छप विकल शेष छथि
उदधि गेल टपि तट प्रदेश छथि।

जीव-जन्तु सभ त्रस्त अकानय
भीषण शब्द कतयसँ आबय।
उड़ि-उड़ि रज आकाश जाइ अछि
तारा सभ दिनकर बुझाइ अछि।

गर्दम-गोल चलै अछि भारी
रज भरि खाधि बनै अछि थारी।
हरित मनोरम उपवन कानन
क्षणमे भेल मलिन धूमानन।
कलरव त्यागि-त्यागि खग भागय
रज आन्हर निज नीड़ न पाबय।
तरु सकम्प फल फूल झरैये
भयसँ जनि निज सर्वस दैये।

चैद्य जखन कुंडिन लगिचौलनि
भूप विदर्भक से सुनि पौलनि।
द्विज गुरु सचिव संग नृप भेला
सज्ज सकल विधि आनय गेला।

महामूल्य मणिहेम-हारसँ
कयलनि स्वागत सभ प्रकारसँ।
आनथि अपन नगर नरशासक
यथायोग्य गृह देथि निवासक।

सभ्यजनोचित भूपवर
सभ भाँतिक सौविध्य दय।
अग्रिम काजक लेल पुनि
गेला निज जन संग लय।

लागय दिवस पहाड़ सम
महासिन्धु सम राति
दिन गनैत शिशुपाल अछि
खग चातक जनु स्वाति।

नृपदुहिता निज नयनसँ
छली नीर बहबैत।
चलू आब पाठक, ततय
को छथि आगु करैत।

चारिम सर्ग समाप्त