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रुक्मिणी परिणय / छठम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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सखि-मुख-निर्गत वचन विप्रवर अबहित-चित्त सुनै छथि
राजकुमारिक मन दुख दारुण बुझि अविलम्ब बजै छथि।
पुत्रि, मनोगत व्यथा व्यक्त करु, की थिक कष्टक मूल?
अपन शक्ति भरि रहब अवश्ये हितक हेतु हम तूल।

केहनो लोकक दाह-दुःख नहि जा सकैत अछि देखल
भूप-सुता-सन्ताप तखन की कखनहुँ जैत उपेखल?
तन मन वचन बुद्धि बल वैभव लय कर अति प्रिय प्राण
करब अहाँ केर काज कृशोदरि, नहि मुह करब मलान।

गिरिजासँ हिमवान प्रशंसित हिमप्रदेश यश-भाजन
धन्य जनक सीताक जन्मसँ मिथिला जनपद पावन।
रुक्मिणीक उद्भवसँ तहिना कहथि महामतिमान
भूपति भीष्मक संग विदर्भक गौरव नित्य महान।

क्षीरसमुद्रक रत्न इन्दिरा गगनक चन्द्रकला छथि
तहिना धरणीतलक मनोरम रत्न नृपति तनया छथि।
तनिक शुभानन मलिन देखि के लोक रहत चुपचाप?
सदय हृदय के शान्त रहत लखि रुक्मिणीक सन्ताप?

ब्राह्मण करथि नीति-निर्धारण अवगत कय श्रुतिशासन
पालथि देश कोष वसुधाधिप लय कर बाण शरासन।
त्याग तपक आधार उभय मिलि जुटथि विश्व उपकार
विप्र दधीचिक अस्थि इन्द्र लय करथि वृत्र-संहार।

अवलम्बित जन-प्राण अन्नपर, अन्न सनातन घनपर
घन आधारित अग्निहवनपर हवन विज्ञ ब्राह्मणपर।
ब्राह्मण नृपतिवंशपर निर्भर तखन नृपति-सन्तान
हैत उपेक्षित कोना विप्रसँ जाधरि घटमे प्राण।

विकसित भेल चन्द्रमुख लगले जतय ग्रहण छल लागल
द्विजवर-वचन-चक्र-भय विह्वल जनि दुर्दम तम भागल।
आशा एक उदित अन्तस्तल बाहर प्रगट प्रकाश
रवि प्राचीक सुदूर अंकमे अनुरंजित आकाश।

तेजपुंज प्रतिरूप अगस्त्यक शोक-सिन्धु अवसायक
मानल सखिक संग नृप दुहिता द्विज कल्याणविधायक।
बजली चतुर सखी पुनि सविनय समय समुझि अनुकूल
रक्त अधर नव पल्लव राजल रद छवि उज्ज्वल फूल।

सखिक संग द्विजदेव, खेलाइत रहथि नराधिप-कन्या
विविध प्रसूनक बीच जेना श्री होथि वसन्तक वन्या।
रूप निरखि नारद मुनि बजला कय किछ हृदय विचार
हिनक चिरन्तन पुरुष थिका वर सुन्दर नन्दकुमार।

नारद मुनिक वचन सुनि सजनिक हृयक फूल फुलैलनि
भेटल रत्न हेरायल, तहिना मुख-छवि तखन बुझैलनि।
थपलनि बरक रूपमे तहिअहि मनमे नन्दकिशोर
हुनक ध्यानमे मग्न रहथि द्विज निशिदिन प्रेमबिभोर।

सुनि मुनि वचन पड़ल दृढ़ नृपहुक उर गिरिधारिक बासा
भय न सकै अछि नारद मुनि सन जनक निरर्थक षभा।
वर विषयक चर्चामे भूपति लैत छला हरि नाम
राजकुमारिक हृदय हर्षसँ छल पबैत विश्राम।

अओता राति सुधाकर सिन्धुक लहरी उमड़ि उठै छथि
निकट वसन्तक आगम बुझि वन-वीथी मदित हँसै छथि।
आलिंगित रवि-करे हिमानी चमकथि भय श्रीमन्त
किन्तु हरिक नामहुसँ सुन्दरि हर्षित होथि अनन्त।

नभमे नीरद नील निरखि घनश्याम बुझै छथि आली
चक्र सुदर्शन इन्द्रधनुष पुनि पीत वसन तड़िदालो।
वनमाला बकपंक्ति सुशोभन सलिल प्रेम-रस-पूर
लगले नाचि उठै छनि सजनिक उन्मद मनक मयूर।

प्रेम-प्रवण मन चलय निरन्तर चक्रधरक अनुचिन्तन
सिद्ध सन्त जन जकाँ किशोरिक एक लक्ष्य यदुनन्दन।
चिन्तित चित्त राति जँ कखनहुँ लागल आँखि कनेक
कल्पित विरह जन्य उठि विह्वल कानथि काल अनेक।

रुक्मिक नीच विचारक कारण मौन धराधिप भेला
कन्यादानक लेल अचिर शिशुपाल बजाओल गेला।
मन अनुकूल बसात बहै छल छल हरि-मिलनक आस
सम्प्रति प्राण तजैपर उद्यत तनया नृपक निराश।

शिशुपालक कर सौंपि महीपति अपन अलौकिक कन्या
देथि कसाइक हाथ स्वयं जनि कामधेनु लय धन्या।
विद्या देथि सविधि तकरा जे निन्दक नीच नृशंस
बलि दय काकक करथि अर्चना तजि मानसचार हंस।

वाम विधाता होथि जखन वा भाग्यक जखन विपर्यय
बुद्धिमान जन अपनो दुःखक हेतु बनै छथि निश्चय।
कहथि काल्हि रघुनाथ होथु नृप सिंहासन आरूढ़
प्रातःकाल पठाबथि दशरथ घोर विपिन मतिमूढ़।

पत्रक संग द्वारका अपने देव दयामय, जइतहुँ
चक्रपाणिके राजकुमारिक बात बुझा सभ कहितहुँ।
आलिक संग नराधिप-तनया केर बचचितहुँ प्राण
विरहाकुल सीताक यथा ओ पवनपुत्र हनुमान।

गजक आर्त्तरव सुनितहि दौड़थि लय कर चक्र सुदर्शन
बचा भक्तके लेथि नयानिधि कय ग्राहक शिर खंडन।
भक्तिक मूर्त्ति सृदश नृप-पुत्रिक अओता सुनि सन्देश
प्राण बचओता निश्चय हमरा नहि संशय लवलेश।

द्विज राजक संमुख नृप-दुहिता अचल, अटल दृगतारा
चन्द्रकान्त मणि जकाँ निरन्तर नयन स्रवित जलधारा।
वदन-चन्द्र लखि राजकिशोरिक द्विज-उर-सिन्धु अथाह
उद्वेलित भय चलल नेत्रपथ अविरल सलिल प्रवाह।

ज्ञानक अंकुशसँ कय ब्राह्मण विवश दुःख दन्तावल
नीक जकाँ लय पानि कमंडलसँ मुह-आँखि पखारल।
बजला गदगद कंठ चन्द्रमुखि अहाँ लोकनि छी धन्य
धन्य हमहुँ देखल तनिका जे कृष्णक भक्त अनन्य।

गमन करब अविलम्ब द्वारका स्वयं विपुल आकर्षण
अलभ लाभ हम पुत्रि, बुझै छी पुरुष पुराणक दर्शन।
नहि उपकार करब किछ आनब जँ हम यदुकुल-राज
करब अपन उद्धार वस्तुतः एक पंथ दुइ काज।

प्रेमक प्रबल रज्जुसँ बान्हल चक्रपाणि चल औता
धरणीतल विख्यात सुन्दरी वनिता अपन बनौता।
धैरज धरु किछ काल बालिके, नहि करु व्याकुल चित्त
अपन रूपगुण काज करत सभ हम तँ बनब निमित्त।

अंतःकरणक करुण कथा करु सहज भावसँ अंकित
अछि निश्चित विश्वास पत्र पढ़ि हैत हरिक उर झंकृत।
छी हम प्रस्तुत तुरत जाइ लय कालपुरुष अनिवार्य
बुध विलम्बमे दोष बहुत बुझि करथि शीघ्र शुभ कार्य।

सरस पद्यमय पत्र लिखल रहि ललना लता-भवनमे
शब्दक जाल बिछौलनि सभ विधि सक्षम हरि बन्धनमे।
चित्त चन्द्र-च्युत सुधा वर्ण बनि की छल दल विन्यस्त
आवाहनक मन्त्र मोहक की प्रेमक तत्व समस्त।

अनुनय-विनय बहुत कय अन्तिम देल विपुल पथ-संबल
पत्र हाथ दय कहल रुक्मिणी व्यथित हृदय बड़ विह्वल।
द्विजवर, हमर जाइ अछि सम्प्रति पत्रक संगहिं प्राण
हरिक संग लय आनब तखनहिं देखि सकब सप्राण।

जय गणेश जय विघ्नविनाशन कहि द्विज पैर उठौलनि
यदपि देह छल एतय द्वारका पहिनहि हृदय पठौलनि।
नीलकंठ दर्शन दय सूचित करथि सिद्ध अछि काज
तकर समर्थन कयल बाटपर बैसि नकुल महाराज।

कते बाटमे उपवन कानन कते नदी नद झरना
छोट पैघ छल कते महीधर ग्राम नगर घर अङना।
किये कतहु लागत मन विप्रक एक दृश्य भगवान
बुझि असार संसार ब्रह्मपर यथा योगिजन ध्यान!