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रुक्मिणी परिणय / छठम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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रेखाकार सुदूर क्षितिजमे प्रथम बुझायल कारो
किछु चलि बूझि पड़ल वृक्षावलि भवनक ऊँच अटारो।
विविध रंगसँ रंजित भवनक ऊँच ऊँच छल चूल
बूझि पड़य जनि तरु-तरु विकसित बहुत प्रकारक फूल।

जलधि लहरि शत करसँ मारथि द्वारवतोके थापर
कहथि जेना, दे गर्वित-हृदये, ध्यान अपन शठतापर।
बेटी हमर विकल छथि कुंडिनपुर सम्प्रति निरुपाय
अपन अंक छे आनि नुकौने एखनहु हमर जमाय।
प्राचीरक परिधान सुशोभन भवन-वृन्द तन सुन्दर
पादप पंक्ति शिखर कच शयामल गोपुर वदन बिकस्वर।
शिरपर अज्वल मुकुह पताका उरबिच यदु-कुल केतु
द्वारवती छथि ठाढ़ि आगुमे द्विजवर स्वागत हेतु।

द्वारक बान दहिन दिस निरूपम विरचित पंचानन
राम-कृष्ण बल विक्रम सूघक सरग सत्य विज्ञापन।
कम्पत-मिव अवदात पताका अरिसँ कहय सहास
भाग-भाग मृग-निकर भागरे ई थिक सिंह-निवास।

द्विज कुल-रात पहुँचि लग नगरक अपन सफल श्रग मानल
कृष्णक दर्शन हेतु मनोरथ अभिवन अरमे जागल।
परिचय पात अपन दय द्वारक जे छल अधिकृत लोक
पत्र प्रवेशक लय चट चलला पुलकित अंग अशोक।

चमकि रहल छल नील उपलकृत मुख्य सड़क अतिचाकर
स्फटिक रचित युग पार्श्वक रेखा छल जाइत शोभाकार।
गाड़ल ठाम-ठाम पथज्ञापक पùरागकृत यूप
घोल पखारल स्वच्द सुगन्धित पथ सभ भाँति अनूप।

सड़कक कात दुहू दिस सुन्दर विकच कुसुम-तरु पाँती
एक ठाम जनु पंक्तिबद्ध भय ऋतुराजक अछि थाती।
तरु घन पल्लव, प्रतिपल्लव पुनि रंग विरंगक फूल
फूल-फूल पर अलिकुल लुबुधल मकरन्दक अनुकूल।

पथक दुहू दिस तरु कलाल सभ अछि मधुकोष सजौने
घुरि फिर ग्राहक मधुप लैत अछि लघु बड़ गाल बनौने।
दूर दूरसँ मन्द-मन्द लग आबि-आबि पवमान
लुझि-लुझि लगले पड़ा जाइ अछि निरहट काक-समान।

प्रतितरु निर्मित आलवालमे पानि दैत अछि माली
लोल डुबा जल पीबि रहल अछि स्वादि-स्वादि विहगाली।
चुट्टिक पाँती दूर पड़ायल तजि तरु मूल अगार
कते जाइ अछि गाछक ऊपर कते परिधिसँ पार।

ठाम-ठाम अछि छोट पैघ पथ-भवन पंत्ति दिस जाइत
विपुल धार बनि देवनदी छथि जहिना सिन्धु समाइत।
रंग विरंगक रत्न गृहक नभ लहराइत छवि संग
सत्य करथि रवि आबि एतहि निज किरणक सातो रंग।

घाट-बाट सर कूप बाग वन सभ सुन्दर सभ सज्जित
सुन्दरताक विपुल वैभव लखि देवपुरी अछि लज्जित।
हिगु हरदिसँ रत्न घरिक अछि अद्भुत हाट बजार
अतुल सम्पदा देखि कुबेरक प्रभाहीन भंडार।

स्वर्ण रजत मणि मोतिक परसल तते-तते अछि ढेरा
बूझि पड़ै अछि भुवनक लक्ष्मी एतहि बनौलनि डेरा।
टूटल-फूटल खसल-पड़ल बहि गेल कते जलधाम
लगला कहय समुद्रक बुबजन रत्नाकर ते नाम।

वेष सुशोभन मधुर बोल मुख बेचथि वस्तु वणिक जन
कीनथि अपन अपन मन-वांछित वस्तुजात ग्राहकगण।
लेब-देबमे मग्न मनुष्यक तते उठै अछि घोल
सुनि-सुनि दुखसँ खसै-पड़ै अछि जनु जलनिधि-कल्लोल।

कतहु सरोवरमे ललना सभ मिलि जुलि छली नहाइत
छली लोक लोचनमे अभिनव विकसित कमल बुझाइत।
मुख सुगन्धिवश मधुप तुलायल तजि सरसिज संबात
विचलित चित्त तरल कर काँपथि जेना पीपरक पात।

गोल-गोल आकार उच्चमुख निरखि-निरखि वक्षस्थल
चक्रवाक निज रूप घटी बुझि भरि-भरि राति कनै छल।
सहज लाल लखि अधर दुःखसँ रक्त कमल मुरझाय
नयनरूप अवलोकि मीन जल भीतर रहल नकाय।

स्फटिक निकेतन प्रभा पुंजसँ नभतल तते प्रकाशित
तकर सोझमे आबि सुधाकर ह्वैत छला अन्तर्हित।
हुनक ज्योतिसँ यदपि धरातल दुग्धधौतसन स्वच्छ
किन्तु स्वयं अनुमेय छला लखि माझक अंक अनच्छ।

चंचल कर रजनीशक निशिमे जखनहि आबि
चन्द्रकान्त मणि रचित अटासँ गरगर धाम चुबैछल।
रजनीगन्धवा निरखि-निरखि अछि आङनमे बिहुँसैत
चकित चकोर निशीशक आनन अछि जनु क्षुब्ध तकैत।

दिन की राति प्रकाश रहै अछि क्षितिसँ नभघरि जागल
वासुदेव नगरीक परिधिसँ कृष्णपक्ष अछि भागल।
ज्योतिर्विदक कमलसँ मसि बनि पतड़ामे विन्यस्त
से पढ़ि निश्चित करथि गणकगण कोनो कर्म प्रशस्त।

गजरथ अश्व पदातिक पथ पर झुंडक झुंड चलै छल
अबै जाइ छल कते किन्तु नहि ककरहु क्यो अभरै छल।
सभ्य सजग सभ अनुशासनप्रिय सभहक सभके ध्यान
बूझि पड़ै अछि सफल एतहि सभ मानवताक विधान।

कृष्णचरित सुनि हर्ष नयन जल, दुःख न हेतु बनै अछि
दर्शन भिक्षुजनक अभिनयमे, नहि क्यो भीख मँगै अछि।
कुटिलताक अछि वास अलकमे हृदय सरल सभहीक
पाप प्रपंचक संग शत्रुता प्रेम परस्पर नीक।

लक्ष्यबेध जन कतहु सिखैछल लयकर बाण शरासन
कुन्त कृपाण गदा कर लय-लय छल करैत संचालन।
कतहु गजोपम पहलमान सभ सभ छल करैत अभ्यास
ठोकि-ठोकि उर ताल भिड़ै छल ठाकर घनक उदास।

घर-घर गीत-नाद मुदमंगल विविध वाद्य छल झंकृत
विप्र पढ़थि श्रुति मन्त्र कतहु छल यज्ञक कर्म प्रपंचित।
कतहु सुघोपम लोक सुनैछल पावन कथा पुराण
भक्ति भावसँ कतहु चलैछल कृष्णचरित्रक गान।

सुषमा सकल बटोरि विश्वसँ कलाकार झषकेतन
रचने जनु स्वयमेव छला श्रीकृष्णक दिव्य निकेतन।
अंकित शंख चक्र ध्वज ऊपर छल उड़ैत अभिराम
पहुँचि द्वारिपर लेल चरणतल द्विजकुल मणिक विराम।

द्वारपालसँ प्रथम निवेदित
तुरत बजाओल द्विज गेला।
कय सप्रेम प्रणाम सनानत
पुरुष प्रसन्नवदन भेला।

दूर पथश्रम श्रान्त बुभुक्षित
बुझि मन गोवर्द्धनधारी।
कय सभ उचित प्रबन्ध भेला
पुनि अपनहुँ अन्तःपुरचारी।

छठम सर्ग समाप्त