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रुक्मिणी परिणय / तेरहम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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निरखि उदय रजनीशक प्राची
जहिना बूझि पड़य चमकैत।
गेना केर जेना अछि अटवी
हास्य प्रवण हेमनत अबैत।

तहिना द्वारवती चमकै अछि
कृष्णचन्द्रके हैत विवाह।
दूर पथहिसँ देखि पड़ै अछि
नभ दिस उच्छल ज्योति प्रवाह।

हेम रत्न मणि भवन करै अछि
बढ़ि बढ़ि दूर गगनस बात।
भवन भवनसँ ज्योति विनिर्गत
मिलि जुलि एक सुभग संघात।

दोसर साँझ हृदय हरि लै अछि
द्युतिमय द्वारवतिक आकार।
प्राकारक मणिदीप कंठमे
बूझि पड़ै अछि मोतिक हार।

देश विदेशक आमन्त्रित जन
केर निरन्तर लागल तार।
चल जाइत अछि चढ़ि-चढ़ि गाड़ी
गज रथ घोड़ा ऊँट हजार।

अशन वसन रुचि रूप भिन्न छै
भिन्न भिन्न सभहक मुह बोल।
अछि सभमे सम्पर्क बनओने
केवल देव गिरा अनमोल।

नगरिक शोभा, गीतक लहरी
बाजन सभहक विविध निनाद।
क्रमशः ह्वैत समीप भरै अछि
लोकक मनमे बड़ आह्लाद।

अछि उत्साह तरंगित मुहपर
हृदयक वेग तुरत उड़ि जाइ।
द्वारवती उन्मुक्तद्वार छथि
जनगण सरिता सिन्धु समाइ।

हाट बजार गली पथ उपवन
घर आंगन शुचि स्वच्छ अशेष।
दीपालिक आलोक पुंजसँ
साफ दिनहुँस राति विशेष।

द्वार द्वार चौमुख पथ तोरण
स्वर्ण रजत मणि रचित अनेक।
लतरल पर्ण दलक अन्तरसँ
रोचक रश्मि रहल अछि फेंक।

द्वारवतिक अवलोकि छटा छवि
लोकक मनमे दृढ़ विश्वास।
की गोलोक उतरि अछि आयल
की बैकुंठक थीक प्रकाश।

कृष्णक दिव्य निकेतन तँ लखि
ककरो चित्त चकित अछि ह्वैत।
लौकिक हाथक सृजन कहाँ थिक
ई अछि लगले लोक बजैत।

कन्द मूल फल दही तक्र घृत
पू पकमान मिठाइक भार।
वसन विभूषण रंग विरंगक
मरकत मोती हीरक हार।

लय लय निज उपहार जाइ छै
आमन्त्रित जन केर कदम्ब।
कय स्वागत सत्कार नियोजित
जन अछि दैत भवन अविलम्ब।

पाहुन सभक निवास निकेतन
सभ विधि स्वच्छ सदा सुखदाइ।
हर्षक सरिमे प्रवहमान मन
पथक परिश्रम उड़ि जनु जाइ।

जखनहिं जकर प्रयोजन जनिका
देखथि आगु अचिर उपपन्न।
योग्य प्रबन्धक लोक सदा छल
अवहित सेवा लेल प्रसन्न।

पत्र पाबि पहिनहिंसँ चुनि-चुनि
बहुत प्रकारक नन्द सनेस
अपन समाजक संग द्वारका
कयलनि उत्सुक जखन प्रवेश।

व्रजकुल नन्दन तरल तरंगित
आबि तुरत छथि गोड़ लगैत।
नन्दक मन नहि हर्ष समाइत
अछि से सद्यः बझि पड़त।

छातीमे लगबैत यशोदा
सजल नयन पुलकित आकार।
चूमथि हरि मुख मधुर, वक्षसँ
दूधक फूटि बहय दुइ धार।

स्नेह सुधासँ सिक्त कलेवर
वत्सल रस सरि मध्य बहैत।
”मा जुनि कानु“ कहैत पैर पड़ि
सुचिर रहै छथि कृष्ण कनैत।

मुदित मिलथि वसुदेव नन्दसँ
दूध पानि सम सहज सनेह।
मिलथि यशोदा संग देवकी
भासित एक प्राण दुइ देह।

कते मान सममान प्रगट कय
कते प्रगट कय उर उद्गार।
प्रिय पाहुन वसुदेव संग लय
गेला शीघ्र अपन पुनि द्वार।

पाबि निमन्त्रण पत्र विदर्भक भूप अपन अनुरूप
यौतुक योग्य पदार्थ विविध लय भूषण न वसन अप।
चारू पुत्र समेत मित्र गुरु सचिव सभासद संग
कयलनि गमन द्वारका चढ़ि-चढ़ि गजरथ रुचिर तुरंग।

रुक्मिक चक्रचालिसँ बिगड़ल छल हृदयक सभ खेल
बुझलनि भूप छूछून्नर शिर पर लेत चमेलिक तेल।
किन्तु विधाता दूर देशसँ दिशा अन्तसँ आनि
करथि असम्भव सम्भव से नृप हृदय लेल पुनि मानि।

बहुत भाँतिक ओहार सुशोभन, शिविका केर कतार
रानिक संग चलल अछि सजि-धजि अन्तःपुर परिवार।
गाड़ी ऊँट तुरग पर लादल लघुबड़ सभ सामान
जाइत अछि अवहित पुनि सैनिक धीर वीर बलवान।

आबथि भीष्मक नृपति, बात बुझि उग्रसेन महराज
बड़ आदर सम्मान संग पुर अनलनि सहित समाज।
अभिहित कुंडिन पुरक दिव्य गृह निरखि अपन आवास
अयलहुँ स्वर्ग सदेह जेना मन अवनीशक विश्वास।

आबि विदर्भक भरल अमित अछि नारी नर समुदाय
परिचित लोकक लेल बसल पुर कुंडिन नव्य बुझाय।
मंगल वाद्य बजैत द्वारपर अछि उदात्त स्वर ताल
स्फटिक पट्टपर खचित प्रवालक ‘शुभ विवाह’ पद लाल।

भीतक कलाकार कृत जहिं जहिं चलय चमत्कृत खेल
अटकि जाइ अछि ततहि समाजक जतहि नयनयुग गेल।
भिन्न-भिन्न वस्तुक पाँतीमे लागल हाट बजार
अछि ने जानि कतेक सुशोभन आकर्षक संसार।

कर-कृत शैल, झरै अछि झरना, तट पर हरियर घास
हरिणिक संग युगल मृग शावक अछि बैसल लग पास।
मजरल आमक गाछ, चतुर्दिस डारि एकरंग गोल,
कृत्रिम कोकिल बन्धु बजै अछि कूकू कूकू बोल।

कछनी काछ, दहिन कर बरछी, आँजन सन तन भास,
लोचन लाल, लाल लघुपटसँ बान्हल शिर कचपाश।
बाधक संग शिकारक अभिनय वनमे करय किरात,
निरखि विलक्षण नृत्यकला नर-निकरक उच्छल गात।

हस्त-रचित अछि लघु कैलाशक उच्च शिखर अवदात,
ध्यान लगओने छथि शिवशंकर मूनि नयन-जलजात।
पाछुक जटाजूटसँ गंगा दुग्ध-धवल बहि जाथि,
देव-वधू अवगाहथि जलमे विकसित कमल बुझाथि।

कमल-मुकुल मुख बना बालिका अछि लघुसरमे तूल,
रविक तुल्य मणिप्रभा पाबि ओ फुला गेलि बनि फूल।
पट अन्तरित मृदंग बाँसुरिक लय तालक अनुरूप,
कमल नृत्य बड़ दिव्य करै अछि, लखि सभ मुग्ध स्वरूप।

सूत्रधार बैसल अछि ऊपर, कार्य कुशल कर व्यस्त,
बाहर आबि करय कठपुतरी अभिनय पूत प्रशस्त।
नन्दकुमारक बाल चरित अछि प्रगट मंच पर ह्वैत,
अपलक नयन निरखि मन मनुजक अछि गोकुल विचरैत।

देशक कलाकार अछि आयल कते तकर नहि थाह,
कला प्रदर्शित अपन करैअछि, हृदय अतुल उत्साह।
दृश्य देखैत फिरै अछि जनता झुंडक झुंड सहर्ष,
उमड़ल बूझि पड़ै अछि सभठाँ आनन्दक उत्कर्ष।

भूप-भवनमे अबै-जाइ अछि लय उर लोक उमंग,
नमहर डेग, नचै अछि मुहपर काजक तीव्र तरंग।
देव-वधू सभ सुभग सुन्दरी मिलि महिलाक समाज,
रसमय गीत गबै छथि मंगल केर करै छथि काज।

चन्द्रिकाक परिधान पहिरि उड़ वृन्दक भूषणभार,
राका रजनी बिहँसि करै छथि हिमकर संग विहार।
निरखि हृदय उत्कंठित अतिशय रुक्मिणीक अनुमानि,
पीत दुकूल विभूषण हँसि हँसि पहिरओलनि अलि आनि।

रूप सुधारस लोलुप, ते अछि चंचल नयन-चकोर,
केशव उर-सर बास बनाओत चक्र विहँगम जोड़।
बाहुलता नृप-पुत्रिक फड़कय गल बंधन पद लेब,
सभके सनक दैत छथि चुपचाप मनक मनोभव देव।

द्वारवतिक घर-घरमे उत्सव, सबहक उर उत्साह,
सभके बूझि पड़ै अछि केशव अपने बन्धु थिकाह।
शासन समतापरक, रहय नहि स्वार्थक हेतु हरान,
एहन नायकक लेल विभव को जनता दै अछि प्राण।

नन्दकुमारक दिव्य भवनमे उद्धव धाव कतेक,
वर्णन तकर करत की ककरी सीमित बुद्धि विवेक?

दिनहिं विवाहक पूर्वविधि कयलनि हरि गोदान,
उदय होइत चन्द्रक चलल बरिआतिक ओरियान।
बरिआतिक ओरियान चलल, हलचल पुर भारी,
बहुविध बाजन बाजि उठल, रव रंजनकारी,
बूढ़ि बुढ़ानुस संग देवकी मंगल गाबथि,
कय शिर तिलक तुरन्त आरती हरिक उतारथि।

नील घनक अनुरूप अछि देहक द्युति झलकैत,
पीत वसन छवि संग पुनि हरित वर्ण अछि ह्वैत।

हरित वर्ण अछि ह्वैत तिलक केशरकृत माथक,
विविधवर्ण शिर मौर विलक्षण यदुकुलनाथक।
श्रुतियुग कुंडल, हाथ कड़ा, गलमे वनमाला;
रथ चढ़ि चलला वरक वेषमे नन्दक लाला।

संग सुखद सौदामिनिक श्रुतिमत धन करताह
बरसि वारि अवनीतलक दुख-दुर्गति हरताह।

दुख दुर्गति हरताह कौमुदिक संग सुधाकर,
क्रूर किरण सन्ताप तथा तम कय जग बाहर।
शक्तिक धरता हाथ पुरुष बनता बलशाली,
भूमिक हरता भार निरंकुश नृपकुलघाली,

मनुज समाज विमुग्ध अछि निरखि दिव्य वरवेष,
अनायाय कयलक हृदय परमानन्द प्रवेश।

परमानन्द प्रवेश हृदय कयलक नरवृन्दक,
आँखिक तारा अचल रूप देखितहिं गोविन्दक।
माटिक निर्मित मूर्त्ति जकाँ सभ लोक ठाढ़ अछि,
ज्ञाता ज्ञेयक भाव अनेरे भेल पार अछि।

महानन्द वसुदेव बल उग्रसेन नरनाह,
बरिआतिक समुदाय संग हरिक पाछ चललाह।

हरिक पाछु चललाह झकाझक वसन विभूषण,
वाहन तरल तुरंग मत्त गज सुन्दर स्पन्दन।
श्रुति-सुखदायक शब्द बजै अछि बहुविध बाजन,
युवती जन कर मुक्त प्रसूनक वृष्टि सोहाओन।

अयला आगु विदर्भनृप अपन समाजक संग
कयलनि अच्युत-अर्चना मनमे अमित उमंग।

मनमे अमित उमंग तिलक हरि भाल लगौलनि,
पीत वसन कौशेय हार हरीर पहिरौलनि।
कय स्वागत अरिआति भवन अनलनि बरिआती;
जतय हर्ष परिपूर्ण छला प्रस्तुत सरिआती।

पाद्य अर्ध्य मधुपर्क दय आदर मान समेत,
देलनि दिव्य निवासगह सुख-सुविधा समवेत।

सुख-सुविधा समवेत सकल वरबंधु मुदित छथि
भीष्मक नृपक प्रबन्ध निरखि अत्यन्त चकित छथि।
मनमे अभिरुचि जनिक जेहन जे जन्म लैत अछि
बिनु कहनहु से वस्तु तुरत उपलब्ध ह्वैत अछि।

विधि-व्यवहारक संग नव युवती गीत गबैत,
हरिके लय कोबर गेली व्यंग्य विनोद करैत।