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रुक्मिणी परिणय / दशम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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हरण सुनि रुक्मिणीक तत्काल सहायक मित्र नृपक बुझि हारि।
बजै अछि सभ्य समाजक आगु अरुणमुख रुक्मी हाथ पसारि।

कृष्णके जँ नहि रणमे मारि बहिन छी छीनि रुक्मिणी लैत।
उठा कर छी करैत प्रण सत्य पैर नहि कुंडिनपुर हम देब।

भसै अछि बड़-बड़ जन जलधार कहै अछि बौन कते छै पानि।
बजै अछि वानर वनक बिरान पयोनिधि जायब हमहूँ फानि।

रहत जे जते लोक बलहीन तते से बातक नमहर ह्ैत।
शरदमे निर्जल जलद उड़ैत निरर्थक ढनढनाइ अछि ढेर।

लगौलेक लौह-विनिर्मित ठोस कवच तन नीलजलद सम कान्त।
मङौने सिन्धु देशसँ टोप रहय, से शिरपर, लेलक बान्हि।

धनुष छल सौवीरक विख्यात विलक्षण लाटक छल तूणीर।
जतय जे आयुध लोकप्रसिद्ध जुटौने छल से राजकुमार।

लड़ाइक लेल छलै आवेश रुधिर छल धमनीमे बड़ गर्म।
बहुत किछु मानवतासँ दूर करै छल प्रेत-पिशाचक कर्म।

रणोचित रथपर भय आरूढ़ अपन सभ आयुध साजि-सम्हारि।
चलल चतुरंग चमू समवेत अनलपर जहिना व्यग्र पतंग।

हलायुद्ध सेना देखि अबैत भेला पुनि सैन्यसहित घुरि ठाढ़।
विपक्षक सैनिक-सरित-प्रवाह बढ़त की आगु महाबल सेतु।

चलय पुनि लागल युद्ध प्रचंड खसय भट लागल मारि-मारि खेत।
मुषल हल बलभद्रक अविराम करय रण लागल निर्भय नृत्य।

शरसनसँ करैत टंकार उच्च स्वर रुक्मी गारि पढ़ैत।
मनोगत क्रोधे अन्ध अधीर गेल चल जतय छला यदुवीर।

बजै अछि, अरे दुष्ट! रह काढ़, कतय तो जाइत छे कय चोरि?
अरे! यदि छौ किछ दिन जीबाक हमर तो बहिन शीघ्र दे छोड़ि।

निरन्तर रहि अरण्यमे भील जकाँ कय बड़ अनीति-अन्याय।
चसकि तो गेल बहुत छे नीच, तकर फल चखा आइ हम देब।

नृपति कुल रत्न कंसके मारि अधम! तो कयने छले कुकर्म।
तकर फल भोगि रहल छे आइ ओगरि बसि भीषण खार समुद्र।

एखन एक उच्च कुलक सन्तान हरण कय कयले जे अपराध।
तकर परिणाम प्रेतपुर देख! चलओलक तीव्र विशिख सन्धानि।

शिलीमुख चलल लक्ष्य पर ठीक मुकुन्दक उरमे लागल आबि।
यदपि शर भेल कवचपर व्यर्थ सिकुड़ि मुख-मंडल गेल तथापि।

करब अछि आवश्यक प्रतिकार विवश भय सोचल नन्दकुमार।
नयनमे आबि बंकिमा गेल वदन छवि भेल जेना अरहूल।

चलओलनि तुरत धनुष दय बाण कटल ज्या नृप पुत्रक शत खण्ड।
खगाधिप करथि काल भुजगीक जेना तन सहजहि खण्ड-पखण्ड।

धनुषपर प्रत्यंचा नव दैत चलओलक रुक्मी पुनि दश बाण।
बनओलक कुसुमित कान्त पताश जका जगदीशक श्याम शरीर।

मारि शर कृष्णचन्द्र दुइ टूक कयल पुनि सज्य धनुष रुक्मीक।
ज्ञानसँ देथि जेना बुध काटि त्रिगुणमय बन्धन दृढ़ मायाक।

तड़ातड़ि शित सायक-शत मारि बनओलक रुक्मिक जर्जर देह।
बहै अछि व्रणित अंगसँ रक्त जेना जल चालनिसँ चुबि जाय।

शरासन खसल जखन कटि भूमि चलओलक महाशक्ति लय हाथ।
दिशा नभके आक्रान्त करैत चलय जनु विकट काल साकार।

गदासँ देल चतुर्भुज चोट फिरल ओ शक्ति बीचसँ टूटि।
तुरत अछि लैत सारथिक प्राण नृपति सुत बाँचि गेल, छल आयु।

चक्रधर कयलनि गदा प्रहार तुरंगम-सहित भेल रथ चूर्ण।
पुरन्दरकेर कुलिशसँ शैल जेना अछि होइत धूलिकण तूर्ण।

क्रुद्ध भय भीष्मक राजकुमार गदासँ कयलक चट आघात।
सुदर्शन चक्र चला अवलिम्ब गदाके काटि खसओलनि कृष्ण।

परिध लय बंगालक नृपपुत्र चलओलक हरिक देहपर दौड़ि।
करै अछि कोढ़िलासँ आघात शिवा यदि, की बूझत गजराज?

चतुर्भुज परिध हाथसँ छीनि तहीसँ कयलनि तुरत प्रहार।
खसल ओ मूर्च्छित भय रणभूमि उठल पुनि साहस हृदय बटोरि।

तखन ओ उठा ढाल-तरुआरि चलाबक लेल भेल उत्फाल।
अपन लय नन्दक खड्ग खरारि दुहूके काटि खण्ड कय देथि।