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रुक्मिणी परिणय / दशम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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जते छल अस्त्र-शस्त्र सठि गेल अन्तमे भेल अधम निरुपाय।
जेना कय कपटी कपट अनेक स्वयं अछि कखनहुँ होइत देखार।

पटकि पुनि समरभूमिमे चित गेला चढ़ि छातीपर यदुनाथ।
उठओलनि खड्ग समाप्तिक लेल रुक्मिणी पकड़ि लैत छथि हाथ।

प्रवाहित छलनि नयनसँ नीर जेना अछि करुणा द्रवित बहैत।
त्राससँ छलनि सुखायल तालु कंठ छल वाष्प जले अवरुद्ध।

करुण स्वरसँ बजली हिचकैत दयानिधि, दया दान देल जाय
अहाँकेर शक्ति अलौकिक नाथ, बुझै अछि नहि एखनहुँ संसार।

थिका हे देव, सहोदर जेठ हमर ई आदरणीय नितान्त।
करब यदि हिनक अहाँ वध नाथ रहत चिर बहिनिक माथ कलंक।

यदपि ई कयलनि नीति विरुद्ध बहुत अछि हमरहु मनमे दुःख।
कोना पुनि बहिनिक मनसँ जैत सहोदर भाइक सहज सनेह।

करुण सुनि नृप कन्याक विलाप यदपि किछ क्रोध मनक भेल शान्त
वधोद्यमसँ रुकला भुवनेश वधे-सन दंड देब अवधारि।

विवश कय कटि बन्धनसँ बान्हि युगल कर स्यन्दनमे अवलिम्ब।
निशित असिसँ घन दाढ़ी मोछ साफ कय आध वदनसँ देश।

गजादिक वन्य पशुक अवसान जेना कय पंचानन वनराज।
अरातिक सकल सैन्य संहारि हलायुध अयला कृष्ण समीप।

दिवाकरकेर निकटमे ठाढ़ निशाकर होथि जेना श्रीहीन।
हरिक लग नतमुख मन्द निबद्ध नृपति सुतके देखल बल राम।

कटल छल आधा दाढ़ी मोछ लगै अछि केहन वदन रुक्मीक?
खेतमे लेपल कारीचून किसानक जेना कड़ाहो थीक।

निकटमे छली रुक्मिणी ठाढ़ि बहै अछि लोचनसँ जल धार।
दया दयनीय रूपमे खिन्न होथि जनु प्रबल तामसक आगु।

दशा ई देखि द्रवित भय गेल हृदय तत्काल हलायुध केर।
महानक पविसँ अधिक कठोर कुसुमसँ बढ़ि कोमल मन होय।

कहय बलराम तुरत लगलाह कन्हैया, कयलहुँ ई की काज!
स्वजनके करब विरूप-कुरूप कहाँ थिक वीरताक अनुकूल!

अहाँ जुनि कानू राजकुमारि, नियतिकृत संयोगक बुझि बात।
होइ अछि सैह जेहन भवितव्य बनै अछि केवल आन निमित्त।

जेहन ले करय पाप वा पुण्य बनय ओ कालान्तरमे कर्म।
अवश्येकरय पड़ै अछि भोग शुभाशुभ निज कर्मक परिणाम।

सनातन काल-पुरुष अनिवार्य चराचर कर्म बीज लय संग।
तकर फल दैत चलै छथि नित्य तखन पुनि दोष ककर की देब?

थिकहुँ हे राजपुत्रि, अभिजात धराधिपकेर कुलक सन्तान।
समुझि मन सृष्टिक दुर्दम खेल करू जुनि कनियो मनमे दुःख।

कहय पुनि रुक्मीसँ लगलाह सुनू हे भीष्मक राजकुमार।
अहाँ की हेतु बुझी अधलाह उजागर यादव कुल सम्बन्ध?

अहाँकेर वंश विश्व-विख्यात उचित की नीच नृपक थिक संग?
मिला यदि हिंगु पिंडमे देब रहत की स्वच्छ सुरभि कर्पूर?

एखन जे उचित कि अनुचित भेल चित्तस बिसरि अहाँ घर जाउ।
बहुत किछु बुझा-सुझा बलभद्र कयल कर-बन्धन खोलि विमुक्त।

मुक्त भय यदपि विदर्भकुमार घुरल, नहि कुंडनपुर ओ गेल।
अपन अपमानक चिह्न स्वरूप भोजकट ग्राम बसा बसि गेल।

यदुकुलरत्न बन्धुयुग कयलनि द्वारवती प्रस्थान
संग सुधाकर-मुखी रुक्मिणी विजय-श्रीक समान।
सुमन वृष्टि कय अमरवृन्द यशगीत गबैत छलाह
विजयक पद्य प्रबन्ध सुनाबय भाट लोकनि लगलाह।