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रुक्मिणी परिणय / दोसर सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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राजकुमारक उक्ति युक्ति सुनि सोचथि मन जन पालक,
अनुचित हैत कहब किछ जखनहि भेल युवा छथि बालक।
सैह हैत भवितव्य जेहन जे लिखने होथि विधाता,
पुत्रक संग विरोध नीक नहिं अयश अमंगल दाता।

सात्विक गुण समवेत हृदय नित उच्च विचारक स्वामी,
किन्तु प्रधान तमोगुण तहिना नीच पथक अनुगामी।
एहन कतेक बसै अछि भूतल भेलो काज बिगाड़य,
लोकक सुखमे आगि लगायब निज गुण गौरव मानय।

कुटिल कपट पट उक्ति चतुर खल युक्ति तेहन रचि दैये,
गुणमे दोष दोषमे सदगुण प्रायः बूझि पड़ैये,
किन्तु तकर परिणाम नावके भसा धारमे दैये,
उचित कि अनुचित नीक कि अघला नहिं किछ बड़ि बुझैये।

जकरा एक कहै अछि उज्जर तकरहि दोसर कारी,
युक्ति विवेक विहीन अनर्थक सृष्टि करै अछि भारी।
यदु कुल कैरव चन्द्र कृष्ण की व्यक्ति थिका साधारण,
सूरक समता करत कोना क्यो गगनक चान तरेगन?

कंसक भय वसुदेव नन्द गृह अन्तिम सुत दय अयला,
पालन पोषण भेल व्रजहि ते नन्द तनय की भेला?
निरपराध जन द्रोह निरंकुश कंश करै छल भारी,
रुक्मिक दृष्टि कोणमे कोना भेल कहू भल भारी?

सतरह बेर यदपि रण कय कय जरासंघ छल हारल,
देखि प्रजाजन दुःख दयामय हरहिं नीक विचारल,
विश्व विधातक लोक जुटा ई बारंबार अनै अछि,
ते नहिं मारल गेल आइ धरि हमरा बूझि पड़ै अछि।
बूझथि कृष्ण कते नृप कानय मगधक वंदी धरमे,
कखनहु देखत लोक जरासुत जायत कालक करमे।

गो सेवा रत रहथि देवता ऋषि मुनि उच्च विचारी
नृप कुल दीप दिलीप विदित छथि गो सेवा व्रत धारी।
व्रज वसुधा बसि गाय चरौने कृष्ण कलंकित की छथि?
शिशुक स्वभाव चोरौलनि माखतन ते हरि निन्दित की छथि?

सात्विक गुणक विभासँ वचित उर तमासाकुल भारी,
से की बूझत तेज पुंज कृत कर्मक मर्म अनाड़ी?
अहि-शिर-नाच करत की मानव? नर कर शैल धरत की?
से नहि बूझि चरित्र विवेचन विषयी जीव करत की?

गोपी विश्व रूप भगवानक प्रेम प्रवण छलि छाया,
प्रेम वंशवद रसराजक छल रास अलौकिक माया।
अपन छाह अवलोकि काल किछ खेल करय शिशु जहिना,
व्रज वनितागण संग निरी हक केलि कथा थिक तहिना।

ज्वलित कृशानुक दहन शक्ति सौं काज विश्व भरि ले अछि,
लागल आगि विपिनमे कखनहुँ अनगिन जन्तु जरै अछि।
हर्ष विषाद विहीन अनलके पाप न पुण्य लगै अछि,
दूषित मनोवृत्ति सौं प्रेरित नहि से वस्तु बुझै अछि।

के अछि दोसर प्रिय श्याम श्री कृष्ण चन्द्रसन सुन्दर?
देखल सुनल बहुत हम दैछी परतर सकुचि सुधाकर।
मानवताक विशाल राज्य अछि मानल मन सिंहासन,
तकर थिका ओ रंजक राजा नहिं नामक नृपनन्दन।

सोचल बहुत परनतु नृपतिमन युक्ति न सूझल,
रुक्मिक रुखि अनुमानि कहब किछु अनुचित बूझल।
असमंजस किछु काल रहल पुनि सहमत भेला,
मर्माहत मन अन्त समय अन्तः पुर गेला।

दोसर सर्ग समाप्त