रुक्मिणी परिणय / पाँचम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'
दर्पणक अनुरूप उपवनबीच सर छल एक सुन्दर
दिवस देखथि अपन मुह रवि राति तारासंग हिमकर।
नलमणि-प्राचीर सुन्दर सरक चारू कात घेरा
तटक भूमि अनेक पंक्तिक छल सुमन-लक्ष्मीक डेरा।
स्फटिकमणि कृत तीर साड़ी कमल मुख देखितहि बनैछल
हंस हीरक हार सरसो लोक-मानस मोहि लैछल।
सुभग सीढ़ी पùरागक अछि बनल अत्यन्त अमला
थलकमलसँ जलकमल धरि जाथु कमलागार कमला।
उछलि ऊपर माछ गोलाकार पुनि जलमे मुडै़ अछि
सलिल-क्रीड़ासक्त वरुणानीक कङना जनु उड़ै अछि।
पवनकम्पित विपुल मधुकर सम्हरि संघक रूप लै अछि
आबि नलिनिक नलिन-मुखलग रुचिर अलकावलि बनै अछि।
सगर राति करैत क्रन्दन छल विधुर कोकीक बीतल
दिवस कोकक चंचुपुट कृत कंडु कंडन ढेर शीतल।
तट निकट जल बीच मंडप विविध रत्न सुवर्ण मंडित
माधवोक प्रतान लतरल लम्बमान असीम विकसित।
सर ललिल अवगाहि कंजक स्वादि किछु मकरन्द लै अछि
बिलमि कुसुमित कुंजमे क्षण पवन मलयक चल अबै अछि।
लहरि भुजगाकार पायापर चटाचट चाट दै अछि
विवृतद्वार विमुक्त खिड़कीसँ जलक कण उड़ि अबै अछि।
प्रान्त तरुतर मुग्ध बैसलि आँखि मुनने वानरो अछि
पाछ वानर बैसि रोमक कीट चुनि-चुनि लैत जी अछि।
बिगड़ि बगड़ी जाय उड़ि-उड़ि किछ कहय कय शब्द चुन-चुन
पाछ लागल व्यग्र बगड़ी किछु कहय अनुमान सुन सुन।
सखिक कर अवलम्ब कहुना रुक्मिणी जल-गेह गेलो
अखिल जगतक कान्ति शान्तिक सù जनि धय देह गेली।
अलिगणक सङ रूपप्रतिमा बैसली मणिमंचिकालय
सुखक आशा दूर प्रत्युत अनल-गृह सम गर्म लागय।
दृष्टिगोचर दृश्य दीपन भेल सभ उद्वेगकारी
विकल हृदयक लेल अन्तिम शरण वृन्दावन बिहारी।
नयन-युगपर पलक-पट दय थापि कृष्णक मूर्त्ति उरमे
करथि खिन्न विलाप वसुधाधिपक दुहिता श्रान्त सुरमे।
हे दयानिधि! हैत दीनक दुःखसँ उद्धार कीना?
हैत तव संयोग विषयक विघ्नसँ जन पार कोना?
सगर नगरक लोक केशव, त्रस्त भैया केर डरसँ
के कहत संवाद अपनेके हमर कुंडिननगरसँ?
दीन-दुखतम-सूर, सुन्दर, छी अहाँ घट-घट निवासी
सर्वथा निरुपाय चरणक अछि शरणमे दीनदासी।
भक्तवत्सल, आर्त्त भक्तक नहि कतय सुनि आह अयलहुँ?
मुखर वेद पुराण बुधजन नहि ककर कल्याण कयलहुँ?
गिद्ध गज सुग्रीव कपिहुक दुःखसँ अहँ द्रवित भेलहुँ
प्रेमसँ अभिभूत शबरिक ऐंठ बैर सराहि खयलहुँ।
नहि कतय अपनेक प्रस्तुत अमित लोचन कान कर अछि?
विश्व-नाटक सूत्रधर, कहु, नहि कतय अपनेक घर अछि?
हमर अवगुन सोचि मन किछ यदि अहाँ भगवान त्यागब
विरह-व्याकुल-चित्त निश्चिय भय विवश हम प्राण त्यागब।
दिव्य ब्राह्मण एक उपवनमे ततय तत्काल अयला
जनु स्वयं भगवान भूसुर देह धारण कय तुलयला।
स्वच्छ धोती, कान्ह गमछा, छल जनौ झलकैत गरमे
दहिन करमे छल कमंडल दंड वामा काँख तरमे।
ओज तेजक स्रोत आनन, भाल चर्चित चारु चन्दन
उच्चरित छथि भक्तिभावक संग मुखसँ नन्द-नन्दन।
दैत आशीर्वाद बजला सुचिर जोबथु नृप-कुमारो
मनक आशा पुरथु ईश्वर भक्त जन कल्याणकारी।
सखिक संगहि भूपतनया अकचका उठि ठाढ़ि भेली
इष्टसिद्धिक मूर्त्ति मंजुल मानि द्विज भकड़ार भेली।
शिर झुका झट पाद्य जल दय देल कम्बल स्वच्छ आसन
पाबि परिचय पात बूझल कृतिकुशल विश्वासभाजन।
नृपसुता आसीन सखिसङ विप्र अभिमुख मूर्त मंगल
सुरसुतागण आगुमे जनि होथि सुरगुरु जीव बैसल।
प्रिय सखिक संकेतसँ उठि जोड़ि करयुग एक आली
मधुर बोल विनम्र बजली चन्द्रच्युत जनि अमृत नाली।
हे मनुजकुलरत्न, सविनय हमर किछु विज्ञप्ति सूनब
धृष्टता तनयाक कृत यदि कय कृपा तकरा न गूनब।
थिकहुँ कुलजा, वयस अभिनव लाजसँ हम गड़ि रहल छी
छी कहैत तथापि अपने एहि समय संभाव्य बल छी।
परक दुखसँ द्रवित अन्तर होथि ब्राह्मण नित्य निर्भय
आगमन अपनेक द्विजवर दय रहल अछि भाग्य-परिचय।
मलिनमुख ई बूझि पड़ती ऋतुपतिक अभिराम लक्ष्मी
बूझि पड़ती म्लान सम्प्रति विप्र विद्युतदाम लक्ष्मी।
मनक दुस्तर तापसँ अछि झुलसि नलिनिक मलिन आनन
शान्ति लाभक लेल आयलि छथि एतय आनन्द-कानन।
देब यदि आदेश अपने प्रिय सखी किछु बात कहतो
यदि दया अपनेक दुःखक सिन्धुसँ भय पार रहती।
भद्र पुरुषक पाबि दर्शन नहि विपन्नक त्राण कोना?
दिनकरक आलोक उज्ज्वल नहि तमक अवसान कोना?
रचि काजक दृढ़ भूमिका चुप विधुवदनी वाम
बाजथि थोड स्वभाववश महामहिम गुणधाम।
पाँचम सर्ग समाप्त