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रुक्मिणी परिणय / बारहम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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ससरल बाढ़ि, प्रगट तरु तरुमे जल वृद्धिक अछि आँक
उज्जर बूझि पड़ै अछि पीतल घास पात पर पाँक।
बान्ह सड़क टूटल अछि जहिं तहिं फूटल मोनि अनेक
देने अछि जलवेग कतहु तरु तोड़ि ऊँचपर फेंक।

कतहु अजातिक रहल रेह नहि बाध निरखि श्रीहीन
प्रकृतिक थापर तेहन प्रबल क्षण कृषक हाथि दुख दीन।
लीकक जीवन भार जनिक शिर रहथु कोना से सूति?
उर उत्साह उमड़ि पुनि आयल कतय आलसक छति?

आनथि बीआ ताकि कतहुसँ कय प्रबन्ध गाड़ीक
भरि भरि नाव कतहुसँ आनथि जलपथ जँ अछि नीक।
पटइ कान्हपर टाङि अनै छथि जँ भेटल लगपास
थोड़बय दिनमे बूझि पड़ै अछि सौसे हरियर चास।

बाढ़िक पानि आनि छल देने सगरो पाँक पसारि
माटिक प्रजनन शक्ति गेल बढ़ि संग सहायक वारि।
नित नव अंकुर, रंग चमत्कर ह्वै अछि एक अनेक
सस्यश्याम धरणीतल लोकक नयन लैछ क्षणछैंक।

सटल बीटमे बीट धान छै हरियर हरियर पात
तरल तरंगित उघियायल सन लगितहिं तनिक बसात।
सुनि पातक संघर्ष परस्पर बूझि पड़य गरजैत
ठाढ़ आरिपर कृषकक छाती हर्षे अछि उछिलैत।

खेतक कागद, आरि धुरक अछि छोट पैघ प्रिय छन्द
हरियर धानक बीट पंक्तिमे निर्मित वाक्य अमन्द।
तड़ तड़ गम्हड़ा व्यंग्य अर्थ अछि भीतरमे झलकैत
कृषक महाकवि पाथिकसमाजक छथि मन मुग्ध करैत।

हर हर पानि बहै अछि बाघक, आब कोनो नहि मोल
माछक हेंज चलै अछि चढ़ि चढ़ि चंचल जल-कल्लोल।
टेहुका टेहुकी गाँज सरैलासँ अछि गोंढ़ि छनैत
टूटि पड़ल आतुर मछखौका माछी अछि भिनकैत।

चर चाँचरमे कतहु कंठधरि अपन डूबओने गात
कड़हर सारुक भेंट तकैये मुसहरनी अपस्याँत।
आरि आरि ककुरहड़िक बिलमे दहिन हाथ सन्हियाय
पकड़ि रहल काँकोड़ कते, शिर झोंट क झोंझ बुझाय।

काजर सन घन घटाटोप हटि विघटि व्योमस गेल
बिजुलिक भृकुटि-भंग की वज्रक त्रास तिरोहित भेल
खग कुल कलरव संकुल दिग्दल मंजुल मन्द बसात,
नलिनिक नलिन नयन अबलोकित उगथि प्रभाकर प्रात।

जलकणहीन पवन नभतलमे नहि घूरा नहि भाफ
नहि व्यवधान कोनो अछि सम्प्रति किरणक गतिपथ साफ।
दुपहर दिन दिनकरक किरण ते अतिशय तीख बुझाइ
नीतिविहीन निरंकुश शासन जहिना बड़ दुखदाइ।

दिनक अन्त रवि रागरक्तमुख जखनहि लग पग देथि
विकचमुखी अनुरक्त प्रतीची अपन अंक भरि लेथि।
अनघ हृदय आकाश देथि कय तुरत तिमिर पट पात
करथि रहस्यक कृति पर कखनहुँ नहि बुध दृष्टिनिपात।

हिंसक डाकू चोर चुहारक करथि निशा उपकार
ते अधपंक मलिन अछि कारी मसिसँ बढ़ि आकार।
क्रोधक श्यामल अंक दबओने निशिपति सहज वलच्छ
दुग्धवल निज किरण वारिसँ धोथि करथि तनु स्वच्छ।

निर्मल नील सरोवर सन्निभ भेल विभाजित व्योम
तारागणक संग जलक्रीड़ा करथि जेना हँसि सोम।
उडुगण संग उतरि छथि आयल विधु पुनि तालतड़ाग
कैरविणीक उजागर आनन बुझि निज धन्य सोहाग।

आकर सत्य सुघाक सुधाकर नभतलमे चमकैत
बूझि पड़ै अछि अमृत अवनिपर छथि जनु वृष्टि करैत।
गरमायल दिनभरिक रौदमे काजक पाछु हरान
स्वर्ग सुखक अनुभूति करथि मन बाहर बैसि किसान।

निर्मल शानत सलिल सर सरिता पथ जलपंक विहीन
पसरल धानक भव्य पीतिमा दिग्दल कान्ति नवीन।
पावस नृपति निरंकुश ते छल खंजन हंस विदेश,
सर्वसुखद शासन बुझि शरदक घुरि आयल पुनि देश।

कास पटेढ़क चीर पुरातन दिन दिन दूबर देह
जागल हाड़ बुझाइछ तीरक लहरि विनिर्मित देह।
कल-कल शब्द करैत कनै अछि सरिता विकल विशेष
गेला कृष्णकलेवर वारिद प्रियतम हमर विदेश।

जल आङनमे बिहँसि कमलिनी सर्वस करथि प्रदान
क्षुधित मिलिन्दक वृन्द करै अछि आबि आबि मधुपान।
गन्ध परागक संग अपनभरि समटि मीठ मकरन्द
भार भराकुल भिक्षु प्रभंजन चल जाइत अछि मन्द।

तूमल तूर जकाँ सित जलधर रहल व्योममे भासि
सर सरिता जल विपुल तरंगित फेनक उज्ज्वल राशि।
क्षितितल कासकुसुम अछि तहिना स्वच्छ सुभग झलकैत
नभ जल धरतिक माझ आइ जनु अछि उपरोझ चलैत।

कासक फल बसातक संगहि उड़ल कतहु चल जाय
अन्तर्बलसँ हीन जेना जन थोड़बहिमे उड़ियाय।
चातक तृषित पिबै अछि स्वातिक घनजल कय व्रत अन्त
वीर पुरुष प्रण पालथि जहिना सहि दुखदाह अनन्त।

रंग विरंगक शालिसमूहक चितकाबर परिधान
कूजित मंजु मराल अवलिसँ रसना गुणक विधान।
खंजन नयन, सरोरुह आनन, भ्रमर पंक्ति कचबन्ध;
चमकि रहल छथि धरा सुन्दरी, शरदक दिव्य प्रबन्ध।

पूजा पाठ चलै अछि दानव कुल दमनी दुर्गाक।
ढम ढम ढोल बजै अछि घर घर हर्ष हृदय जनताक।
चंडिक दर्शन हेतु लगै अछि मेला कतहु महान
नृत्य गीत नाटकमे दश दिन भेल पलक दश भान।

राकेशक छथि संगसमागत राका राति हँसैत
बरदायिनि जनु फिरथि इन्दिरा ‘को जागर्ति’ कहैत।
लक्ष्मिक चरणकमल वर पूजथि, जननी करथि चुमान
उद्धव धावक संग जाइ अछि बाँटल पान मखान।

कुतरुम कुसुम ललाटक टिकुलो भेंटक उरमे हार
कान ललित बंधूक गुलाबक सुमन सज्ज कचभार।
आमकिशोरिक रूप निरखि मन ह्वै अछि उदित विचार
अपन विभवसँ शरद अलंकृत होथि जेना साकार।

केलि सरोवर कमल फुलायल छल ने जानि कतेक।
करथि बिहार प्रफुल्लित आनन तरुणी आबि अनेक।
जलमे डूबि तरहितर ऊगथि विकच कमल लग जाय
धोखामे पड़ि पकड़ि न पाबथि जाथि सखी भोतिआय।

पथ कातक बुटियायल धानक अछि विस्तार बढ़ैत
किछ ने किछु सभ दिन जाइत खन लपकि माल अछि लैत।
गाड़िक लीख प्रगट अछि एखनहुँ, यद्यपि गेल सुखाय
वर्षामे छल बनल वक्र पथ, एखनहुँ चिह्न बुझाय।

गाइक जेर चरय बिच परती खेल करय चरवाह
किछु पद दूर बहय सरि सुन्दर निर्मल जलक प्रवाह।
तृषित आबि जल पीबि महाबल साँढ़ बहुत ढेहकैत,
सिंध भिड़ा तट ढाहि रहल अछि अपन दर्प देखबैत।

टेङरा पोटी गड़इ माछ छै हेंजक हेज चलैत
रोहु बोआरी छरपि छरपि छै जलमे तुरत खसैत।
माछक छबरा गोल बनओने छै चमचम चमकैत
कमल नयन शत प्रगट जलाशय अछि सभ दृश्य देखैत।

ध्यान लगओने मुनि सम बगुला अछि सरिताक कछार
महा अहिंसक सनत जकाँ अछि युग चराक व्यापार।
कखनहुँ चंचुपुटक भालासँ जलमे तेहन प्रहार
चेलहा पोठिक टोल उठै अछि भीषण हाहाकार।

सजल खेतमे कुसुमित नलिनी, नलिन वदन अवदात
सीस झुकल नीचाँ दिस धानक, अछि पीयर धड़ पात।
मदन-शराहत झुकि जनु व्याकुल प्रणति करैत बुझाथि
होथि तिरस्कृत अपमानित ते क्रमहि सुखायल जाथि।

बाधक माझ कने गोट खोपड़ि नीरव राति अन्हार
भुक भुक आगि जरैत आगुमे अछि जागल रखबार।
सापक मुहमे पड़ल बेङ अछि कें कें कतहु करैत
भूकल गीदड़ एक कतहु की अछि भरि बाध भुकैत।

शिवक ध्यानमे मग्न जेना निशि भिनसर टपटप नीर,
भक्तिक सरिता हृदय प्रवाहित बाहर जनु हिलकोर।
‘ले प्रसून’ शृंगार हरक कर, दै छी हम उपहार
प्रातः काल कहय जनु झरि झरि कुसुमित हरशुंगार।

दाना दानक योग्य तुरत अछि धानक सीस झुकैत
बिनु बजनहुं इंगित आकृतिसँ अछि जनु प्रगट कहैत।
रे मानव! घ्न पाबि नम्र बन, कर जगतक कल्याण
अवसर पाबि बना दिन चारिक जीवन जन्म महान।

कुमहर सजमनि धेरा झिंगुनो तरकारी सभ आन
टाट फड़कपर लतरि फड़ै अछि चढ़ि चढ़ि चार मचान।
दै अछि जीवन तत्व विश्वके रहितहुँ जड़ अज्ञान
पालक शक्ति कोनो अछि सभठाँ, सैह थिका भगवान।

ससरि कृतान्त वधू घर जाइत छथि रवि नलिनीनाह
तेज दिनहि दिन घटल जाइ छनि, पापक फल अधलाह।
देखि समय प्रतिकूल सताबय लगलनि तुहिन विपक्ष
लज्जित, बेसी काल रहथि नहि लोकक आबि समक्ष।

दीपालिक आलोक पुंजसँ आलोकित जग भेल
पर्णिमाक परिधान पहिरि जनु अमा आबि छथि गेल।
फेरथि ऊक सभहुँजन पूजाथि श्री सुख-संपति रूप
करथि दरिद्रा दूर पुरन्ध्री पीटि पसरमे सूप।

डोरी पगहा गरदामी गर पहिराबथि सस्नेह
हरियर पीयर लाल रंगसँ छाप लगाबथि देह।
मादक रस सोनहओन पियाबथि काटि खोआबथि घान
सुखरातिक दिन गोजातिक सभ पूजा करथि किसान।

बाँसक अग्र भागमे निर्मम बान्हि उठा अछि लैत
पड़रुक ममते व्यग्र महिसके लय अछि हूड़ा दैत।
चिचिआइत अछि सूगर व्याकुल सिघंक झाँट लगैत
अद्भुत! जन ग्रामीण ठाढ़ भय अछि दुख दृश्य देखैत।

गहना साड़ी पकमानक लय भार सहोदर जाथि
बहिन पानसँ पूजि हुनक कर हर्षक सिन्धु समाथि।
बना विविध स्वादिष्ठ सुशोभन भोजन देथि अनूप
भाइ-बहिन सम्बन्ध सनेहक भरदुतिया प्रतिरूप।

आबि जलाशय तट वनिता सभ सजि धजि पहिरि पटोर
प्रथम अर्ध्य दिनकरके सन्ध्या दोसर दै छथि भोर।
कय पिककंठविजय जनु युवती छथि मिलि गीत गबैत
दीपक द्युतिमे माणिक सम अछि सभहक मुह चमकैत।

युवति समाजक वदन-कमल अछि जहिना उत्सुक घाट
तहिना जलमे जलककमल सभ ताकि रहल अछि बाट।
कमलबन्धु रवि आबथि जखनहि लोचनपथ पद दैत
तट जल कमलक पंक्ति लगै अछि झुकि-झुकि गोड़ हँसैत।

दुर्गम पथ, गगन घनसंकुल क्षितितल नीर निधान
उद्यमहीन रहथि ते सूतल नर हृदयक भगवान।
आइ सुभग दिग्देश, सुगम पथ, आयल देव उठान
साँझ सभहुँ उर ज्योति जगाबथि पूजि तनिक प्रतिमान।

शिरसम नील गगनतल भासित प्राची मुखसम स्वच्छ
दिनक दिनेश निशाकर रजनिक लोचन लीक समक्ष।
निर्मल पारदर्शि जल संगहि लय नव अन्न अनूप
आयल अगहन मास अवनिपर बनि विश्वम्भर रूप।

वर्ष भरिक श्रमशक्ति अपन लखि धरतीपर साकार
निज सेवासँ तृप्त धरित्रिक मंगलमय उपहार।
रंग-विरंगक धान क्षितिज धरि उज्जर कारी लाल
देखि देखि घुरि आरि आरिपर पृथविक पुत्र नेहाल।

पाकल धान, चलल धनकटनी, हलचल भेल किसान
खेतक शोभा कटि कटि लागल जुटय आबि खरिहान।
काजक पाछ हरान बाधमे दिन भरि लोक बुझाइ
घर आङन खरिहान साँमे भरल धानसँ जाइ।

झुकि झुकि धान कटै अछि छप छप, खप खप छीपय सीस
बान्हय बोझ चलय दुलकी दय गाम नगर पुर दीस।
लच लच बहंगा करय कान्हपर, उछिलय बोझ अपार
टूटि टूटि बाटहुमे लागय धानक टूर पथार।

कतहु खेतमे गीत चलैये कतहु लगैये पान
कतहु विभूति लगाबथि पंडा जय शंकर भगवान।
मुड़ही लाइ भरल पथिया लय घुरय बाघ हलुआइ
धिया पुता सभ बदलि धानसँ मुड़ मुड़ मुड़ मुड़ खाइ।

काज बहुत बड़ छोट-छोट दिन नमहर नमहर साँझ
जाढ़क जोर जते छन सूझल व्यस्त कृषक श्रम माझ।
आगु दलानक घूर चतुर्दिस तापथि आगि किसान
धानक उपजा कतय केहन की कहि सुनि हर्षित प्राण।

कूटथि चूड़ा गृहवनितागण करथि दहिक ओरियान
नव कुसियारक गूड़ मूर पुनि बाड़िक स्वच्छ महान।
देव पितर ब्राह्मणके पहिने अर्पित करथि प्रसन्न
परिजन संग स्वयं पुनि गृहपति छथि खाइत नव अन्न।

दोसर साँझ, निकट नभ घूमाकुल ऊपर हिम भार
आङन धान ओसाबथि गृहपति सूप चलय धुरझार।
गृहिणी देहरि पाक बनाबथि धह धह चूल्हि जरैत
अछि प्रतप्त मुख लाल गुलाबक फूल जकाँ चमकैत।

ओसक संग सघन तम पसरल, ते बड़ राति अन्हार
तिमिर सिन्धुमे बूझि पड़ै अछि डूबि गेल संसार।
घड़ी घंट भगवानक मन्दिरमे अछि कतहु बजैत
कतहु द्वारि पर दीपक द्युतिमे अछि वटुवृन्द पढ़ैत।

दिन भरि श्रान्त खेतमे सूतल निशिमे निर्भर निन्न
रहितहुँ राति गबैअछि उठि-उठि प्रातक गीत अखिन्न।
पहिरि खड़ामक हार घरैअछि खो’ पर बड़दक गोल
चल बेटा भैया चल सौसे गाम उठै अछि घोल।

नवका धानक भात, दालि नव कुरथिक, सरिसो शाक
महिषिक छल्हिगर दही भीत सन, की पुनि स्वाद सुधाक?
सीरक सलगा तर पोआर पर रातुक सुखमय नीन
अगहन आबि करय क्षितिपुत्रक कायाकल्प नवीन।

सरिसो तोड़ी खेत फुलायल उड़य तेल सन गन्ध
घुरि फिरि मधु मकरन्द पिबै अछि मत्त मधुपदल अन्ध।
रजनीगन्धा साँझ हँसै छथि चानक देखितहिं रूप
आकुल प्राण खसै छथि झरि झरि लखि जनु प्रात विरूप।

गाम घरक की खेत पथारक छविमे छलहुद्द निमग्न
देखल दृश्य बहुत किछु पाठक निकट विवाहक लग्न।
कतहु कृष्ण छथि कतहु रुक्मिणी विरहखिन्न युगप्राण
करब आब अविलम्ब उचित थिक द्वारवती प्रस्थान।

दिनान्त दिग्देश दिनेश गेला
उपात्त प्राची-गृह चान भेला।

खगोलमे लाल प्रकाश धारा
बुझाय रक्ताम्बुजतुल्य तारा।
नितान्त हृद्या दिवसान्त लक्ष्मी
विहंगमाला अछि नीड़गामी।

अजस्र गर्जैत समीपवर्त्ती
बुझाथि प्रायः सरिताक स्वामी।

बारहम सर्ग समाप्त