रुक्मिणी परिणय / सातम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'
कय भोजन विश्राम जखन द्विज अवहित भेला
राजकुमारिक प्रबल कार्यवश विचलित भेला।
सस्मितमुख भगवान ततय तत्काल अबै छथि
भक्त मनक सुनि टेरि कतहु की देरि करै छथि?
बजला, हे द्विजराज, कहू सभ विधि सकुशल छो?
की किछ कष्टक हेतु एतय अपने पहुँचल छी?
धेनु धरासुर पूज्य हमर निश्चय अहँ जानब
सेवक सेवा लेल सदा प्रस्तुत अछि मानब।
सुनल विदर्भक लोक सुखी सभ वैभव-भाजन?
ईति भीतिसँ रहित खेत नित नव उत्पादन?
शोषणहीन समाज, नीक छथि भूप-महोदय?
विप्र, हमर विश्वास, विदर्भक हैत शुभोदय।
कते निरंकुश नृपति दानवी वृत्ति बनौने
अछि अनीतिमय मार्ग एखन भूपर अपनौने।
छथि अहाँक भल भूप कहू, तकरासँ बाँचल?
नहि तँ तकर सदैव थिकहुँ हम द्विज, अस्ताचल।
दुर्जन दुष्ट नृशंस जते अछि जनविद्रोही
छल बल संवल पाप पथक अविराम बटोही।
जन-कल्याणक सहज शत्रु दुर्दम अभिमानी
थिकहुँ तकर हम काल सदा अपने धु्रव जानो।
अपने दुर्गम कते पार कय अग नग कानन
अयलहुँ भेटल हैत कते पथ गज पंचानन।
आगमनक की हेतु वस्तुतः नहि बुझैत छी
उत्कंठा उर बहुत, विप्र, हम ते पुछैत छी।
मन वचनामृत मग्न जेना सूतलसँ जगला
तृप्तहृदय हरि केर उक्ति सुनि द्विजवर बजला।
अभयंकर, सर्वज्ञ, विभो, हमरा पुछैत छी
अहाँ विश्वमे कोन विषय जे नहि बुझैत छी?
विश्वबन्धु, ई प्रश्न मात्र थिक मानव-लीला
नहि चिन्हैत अछि अज्ञ जकर मति संशयशीला।
निराकार जग लेल अहाँ साकार ह्वैत छी
सत्य अशुभ संहार हेतु अवतार लैत छी।
युग-युग अनुपम ओज तेज लय प्रगट ह्वैत छी
जखन जतय वा जेहन उचित मति अपनबैत छी।
देश-काल कृत जटिल प्रश्न स्वीकारि लैत छी
आर्त्त धरित्रिक त्राण लेल नव दिशा दैत छी।
जन्म सफल अछि, आइ अपन हम भाग्य सराहो
आइ हमर सभ पाप-ताप भागल बनि राही।
जत तप संयम योग बनल सभ सत्फलदाता
भेल दरस अपनेक प्रभो! कल्याणविधाता।
श्याम सूर्य छी उदित अहाँ ते सन्तत वासर
द्विजकुल-कोकक कुशल किये नहि हे करुणाकर।
विश्वविधायक पुरुष अहाँ भूतलपर जागो
विप्र धेनु सुर साधु तखन की कष्टक भागी?
धन्य विदर्भक भाग्य, भूप छथि नीतिविशारद
सुख-सौविध्यक संग प्रजाजन नित्य निरापद।
नृप-विरुद्ध बनि शलभ शत्रु के साहस करता?
भीषण भीष्मप्रताप-वह्निमे जरि-जरि मरता।
भोगक पद आसीन योग पथ विचरणकारी
योगी जनक नवीन थिक नृप विज्ञ विचारी।
कहथि सदा अखिलेश कृष्ण लीलावपु धारी
रमा थिकी ई हमर रुक्मिणी राजकुमारी।
नित्य पथिक लखि कहल कदाचित मुनि विधिनन्दन
मीन मेष बिनु हिनक थिका वर यदुकुलनन्दन।
सुनितहि मुनि मुख वचन भक्तिसँ भूप तनूजा
करथि सदा अपनेक युगल पद पंकज-पूजा।
नृप नर वृन्दक चित्त कुमुद छल नित्य प्रफुल्लित
रुक्मिणीक उर-कमल तहूसँ छल बढ़ि विकसित।
रुक्मी ऋतु हेमन्त बनल, मुख-वचन हिमानी
भेल सभहुँ श्रीहीन सभहुँ मर्माहत प्राणी।
राजा मौन विमुग्ध क्षुब्ध जन-मानस भेलै
निश्चित वर शिशुपाल निमन्त्रण दल चल गेलै।
राजकुमारिक दशा तखन की कहि सकैत छी?
कंठ रुद्ध अछि हमर हरे, कर पत्र दैत छी।
भूप-किशोरिक पत्र जखन हरि हाथ पड़ै अछि
सगर शरीरक रोम स्वयं उठि उन्मुख ह्वै अछि।
पदसँ शिर धरि देह क्षणहि क्षण सिहरि उठै अछि
नील-कमल हिम बिन्दु जकाँ मुख-जल झलकै अछि।
बार बार उर पत्र लगौलनि त्रिभुवननेता
देलनि उद्धव हाथ ‘पढ़’ कहि विचलितचेता।
लगले लगला पढ़य पत्र उद्धव अगुतायल
इन्द्रिय सभ जुटि जेना हरिक युग कान तुलायल।
हे प्रियतम, प्राणेश, भुवनसुन्दर, वनमाली
प्रणतपाल, जनशोकशमन, अद्भुत बलशाली।
योगिजनक मन भृंग सुसेवित चरणकमलमे
शत शत हमर प्रणाम टेकि शिर जगतीतलमे।
गुणगण बाढ़ि अहाँक तेहन श्रुतिपथ उर आयल
धैरज लाज विवेक हमर सभ देव, दहायल।
थिकहुँ कुलीन कुमारि पत्र पुनि स्वयं दैत छी
क्षमा करब, निरुपाय नाथ! हम की करैत छी।
राजकुमारिक लेल सनातन रीति स्वयंवर
कयलनि तकर प्रबन्ध हमर नहि जेठ सहोदर।
नृपक विचार उपेखि देखि नहि जनमत भैया
बजबौलनि शिशुपाल सदलबल शीघ्र अबैया।
निज प्रकृतिक अनुकूल अधम जन संग तकैये
अपन स्वारथक सिद्धि हेतु अनका बलि दैये।
की अनुचित की उचित ताहिपर ध्यान न दैये
अनका जे किछु होउ, अपन कुरथी उलबैये।
शरद-सुधाकर केर कला तमहाथ पड़ै अछि
सिह सदृश अपनेक भाग जनु गीदड़ लै अछि।
समय एखन प्रतिकूल संग पुनि हमर देत के?
दीनबन्धु बिनु दीन जनक सुधि आन लेत के?
घरमे लागल आगि देखि सभ दौड़ि अबैये
जकरा जे विधि भेल अपन सक भरि बचबैये।
मनमे लागल आगि कोना के बूझि सकैये?
प्रबल दाहसँ कुही भीतरहि भीतर ह्वैये छी।
लागल कनियो आँखि अहाँ उर व्यक्त ह्वैत छी
उठल हाथ हम जागि शून्य घर पछतबैत छी।
नारी, पुनि पथ दूर, कोना साहस करैत छी?
धन्य विहग, नहि पाँखि हाय! हम विवश ह्वैत छी।
महावृष्टि पविपात जखन, कर शैल उठौलहुँ
गोधन सह गोपाल सभक अहँ प्राण बचौलहुँ।
यमक लोकसँ गुरुक पुत्र जा आनि दैत छी
भारी अछि कृति कोन अहाँ नहि कय सकैत छी?
पहिनहुँ कन्या हरण कते कय नृप अनने छथि
आठ विवाहक मध्य विबुध एकरहु गगने छथि।
आबि एतय अविलम्ब अहाँ हमरा अपना ली
प्राणघातसँ चरण-किंकरिक प्राण बचा ली।
हम विवाह दिन प्रात भवनसँ बाहर आयब
पद-युग पूजन लेल उमा-मंदिर चल जायब।
प्रस्तुत माधव, रहब चढ़ा चट हाँकब स्यन्दन
मुह तकैत रहि जाय जेना दमघोषक नन्दन।
गुण-गाथा सुनि कोन हमर आयब गुण-आगर?
सरितासँ आकृष्ट कहाँ जाइत अछि सागर?
प्रेमक वश शबरीक अहाँ अयलहुँ घर उज्ज्वल
अछि भरोस ते हमर मनोरथ हैत न निष्फल।
किन्तु जलधि जल ढर कते घट माझ अबैये?
अग्निक ज्वाल अनन्त कते द्युति दीपक दैये?
हृदयक आहि अनल्प कते लघुपत्र कहैये?
मनक भाव ने जानि कोना प्रभुपद पहुँचैये?