रूख़्सत-ए-नुत़्क ज़बानों को रिया क्या देगी / 'वहीद' अख़्तर
रूख़्सत-ए-नुत़्क ज़बानों को रिया क्या देगी
दर्स हक़-गोई का ये बिंत-ए-ख़ता क्या देगी
सजदा करती है लईमों के दरों पर दुनिया
बे-नियाजों को ये बे-शर्म भला क्या देगी
यही होगा कि न आएगी कभी घर मेरे
मुझ को दुनिया-ए-दुनी और सज़ा क्या देगी
साल-हा-साल के तूफ़ाँ में भी दिल बुझ न सका
ज़क उसे सरकशी-ए-मौज-ए-हवा क्या देगी
कोई मौसम हो महकते हैं यहाँ जख़्म के फूल
मेरे दामन को तही-दस्त सबा क्या देगी
दिल तो कुछ कहता है पर शर्म से उठते नहीं हाथ
देखना है कि ये बे-दस्त दुआ क्या देगी
ख़्वाहिश-ए-मर्ग है कुछ पाने की मौहूम उम्मीद
ज़िंदगी दे न सकी कुछ तो कज़ा क्या देगी
ख़्वाब देखे हैं तो बेदार रहो उम्र तमाम
चश्म-ए-ख़्वाबीदा को ताबीर-ए-सीला क्या देगी
इसी ज़िंदान में अब काट दो उम्र अपनी ‘वहीद’
मैं न कहता था तुम्हें क़ैद-ए-वफ़ा क्या देगी