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रूखी-सूखी खा के आधे पेट पर ज़िन्दा रहा / बल्ली सिंह चीमा

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रूखी-सूखी खा के आधे पेट पर ज़िन्दा रहा ।
ज़िन्दगी के रहम पर वो उम्र भर ज़िन्दा रहा ।

बात इतनी थी कि वो फ़ाक़ाकशी से मर गया,
शाम तक मुद्दा यही बनकर ख़बर ज़िन्दा रहा ।

ज़िन्दगी जीने के भी आदाब होते हैं हुज़ूर,
मर गया इक शान से, इक रेंगकर ज़िन्दा रहा ।

ज़िन्दगी से प्यार करता था वो शायद इसलिए,
ज़िन्दगी की ज़िन्दगी को बेचकर ज़िन्दा रहा

महफ़िलें, जलसे और नाटक कुछ भी तो होता नहीं,
ऐसे मुर्दा शहर में वो उम्र भर ज़िन्दा रहा ।

हादसों की धूप में ऐ ज़िन्दगी तेरे लिए,
एक 'बल्ली' है, कि जो बनकर शजर ज़िन्दा रहा ।