रूख विरीछ से चिरंई चिरगुन / रामनरेश वर्मा
रूख विरीछ से चिरंई चिरगुन, कब से करे अनोर॥
भइया लावऽ नयका भोर॥
रात कार कट गेल देस के, जखनी मिलल अजादी।
घी दूध के नदिया बहते, कहलन दादा-दादी।
एकरे असरे मिटल दरद-दुख, सुखल आँख के लोर॥
भइया लावऽ नयका भोर॥
विस्व गुरू सोना के चिरई, हल भारत के नाँव।
सहर सहर तो हइये हल, रूह चुह हल हर गाँव।
गंगहार सर मुकुट हिमालय, सागर धोवे गोड़॥
भइया लावऽ नयका भोर॥
उगल रहल उपजाउ धरती, सोना अइसन दाना।
अउर पहाड़ी परती में हे, भरपुर भरल खजाना।
कल करखाना के समान सब, फिर धन काहे थोर॥
भइया लावऽ नयका भोर॥
आजादी के असल सुख न, मिल पायल हे सच्चा।
कह देवे से काम न चलते, बुढ़ जवान आउ बच्चा।
नेक इरादा निश्चय दृढ़ रख मेहनत कर पुरजोर॥
भइया लावऽ नयका भोर॥
बुतरू आजादी के आयल अब पुरजोर जवानी।
सोसन अत्याचार बढ़े न, जोर जुलुम मनमानी।
भेद भाव मिट जाय विसमता हर घर होय इंजोर॥
भइया लावऽ नयका भोर॥