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रूठ जाएँ तो क्या तमाशा हो / अब्दुल मजीम ‘महश्र’
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रूठ जाएँ तो क्या तमाशा हो
हम मनाएँ तो क्या तमाशा हो
काश वायदा यही जो हम करके
भूल जाएँ तो क्या तमाशा हो
तन पे पहने लिबास काग़ज़ सा
वह नहाएँ तो क्या तमाशा हो
चुपके चोरी की ये मुलाकातें
रंग लाएँ तो क्या तमाशा हो
अपने वादा पे वस्ल में ‘महशर’
वो न आएँ तो क्या तमाशा हो