भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूप उसका कभी दिखा ही नहीं / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रूप उस का कभी दिखा ही नहीं
उसका दर तो कभी खुला ही नहीं

छूट पिंजरे से तो गया पंछी
क्या कहें वो मगर उड़ा ही नहीं

राज़ हर दिल का जान लेता है
जो जुबाँ से कभी कहा ही नहीं

मंजिलों का पता वही देगा
जिसको तुमने कभी पढा ही नहीं

अब तुम्हीं तक है हमारी मंजिल
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

आँधियाँ आ गईं बुझाने को
दीप लेकिन कभी जला ही नहीं

सौंप दी जिंदगी तुम्हें अपनी
तुमने तो की मगर वफ़ा ही नहीं