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रूप के छविघन / यतींद्रनाथ राही

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फिर पुरानी
एक पाती
धर गया बादर

छा गए हैं नयन में
किस रूप के
छवि-घन
ज्योति प्लावित हो गया है
तिमिर का कन-कन
रोम रन्ध्रों से
ध्वनित हैं
बाँसुरी के स्वर
देह वंशीवट हुई है
प्राण वृन्दावन
चुप्पियाँ फिर गुनगुनायीं
अधर पर आकर
नेह की यमुना तरंगित
लहर,
कल-कल-छल
डूब जाएँ
धन्य हो लें
ये अमोलक क्षण
चाँदनी में
घुली-सँवरी
रजनिगन्धा छविमती
बाँध भर लें
बाज़ुओं में
रूप वह अविकल
हों छलकते रस-कलश
ये गीत के आखर

20.4.2017