रूप धरती ने धरा
कितना सलोना । 
बिछ गया खेतों में 
कंचन का बिछौना ।। 
भार से बल खा रहीं हैं डालियाँ, 
शान से इठला रहीं हैं बालियाँ, 
छा गया चारों तरफ़ 
सोना ही सोना । 
बिछ गया खेतों में 
कंचन का बिछौना ।। 
रश्मियों ने रूप कुन्दन का सँवारा, 
नयन को सबके लुभाता यह नज़ारा, 
धान्य से सज्जित 
हुआ हरेक कोना । 
बिछ गया खेतों में 
कंचन का बिछौना ।। 
मस्त होकर गा रहा लोरी पवन है, 
नाचता होकर मुदित जन-गण मगन है, 
मिल गया उपहार में 
स्वर्णिम खिलौना । 
बिछ गया खेतों में 
कंचन का बिछौना ।।