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रेज़ा—रेज़ा वो बिखेरेगा, बिखर जाउँगा / सुरेश चन्द्र शौक़

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रेज़ा—रेज़ा वो बिखेरेगा, बिखर जाउँगा

अपनी तकमील बहरहाल मैं कर जाऊँगा


मेरा ज़ाहिर भी वही है मेरा बातिन भी वही

मत समझना कि मैं आईने से डर जाऊँगा


प्यार बेलौस मिरा जज़्बे मिरे पाक़ीज़ा

इक न इक रोज़ तिरे दिल में उतर जाऊँगा


है कोई ठौर ठिकाना न कोई मेरा सुराग़

ढूँढने निकलूँगा ख़ुद को तो किधर जाऊँगा


जब तू यादों के दरीचों से कभी झाँकेगा

अश्क बन कर तिरी पलकों पे ठहर जाऊँगा


मेरी तक़दीर में काँटे हैं तो काँटे ही सही

तेरे दामन को मगर फूलों से भर जाऊँगा


अपने अश्कों के इवज़ क़हक़हे बख़्शूँगा तुझे

ज़िन्दगी तुझ पे यह अहसान भी कर जाऊँगा


‘शौक़’! हैरान—सा कर दूँगा उसे भी इक रोज़

बेनियाज़ उसके मुकाबिल से गुज़र जाऊँगा.


तकमील=समस्यापूर्ति; ज़ाहिर=बाह्य रूप; बातिन=अंतकरण; बेलौस=निष्काम; दरीचों=खिड़कियों; बेनियाज़=बेपरवाह, नि:स्पॄह.