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रेज़ा-रेज़ा / मिक्लोश रादनोती / विनोद दास

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उफ़ ! इस धरती पर मैं ऐसे वक़्त में रहता था
जहाँ इनसान इस कदर गिर गया था
कि वह सिर्फ़ हुक़्म की तामील के लिए नहीं
बल्कि लुत्फ़ उठाने के लिए हत्या करता था
उसकी झूठी आस्था उसे भ्रष्टाचार की तरफ़ ले जाती थी
उसकी ज़िन्दगी ख़ुद के बारे में पाले बड़े-बड़े मुगालतों से चलती थी

उफ़ ! इस धरती पर मैं ऐसे वक़्त में रहता था
जहाँ पुलिस के धूर्त मुख़बिर की परस्तिश होती थी
जहाँ नायक हत्यारे, जासूस और चोर होते थे
और जो चन्द ख़ामोश रहते थे या जयकारा नहीं लगाते थे
महामारी के मरीज़ की तरह से उनसे नफ़रत की जाती थी

उफ़ ! इस धरती पर मैं ऐसे वक़्त में रहता था
जहाँ विद्रोह का ख़तरा उठाने वाले जब अक़्लमन्दी से छिप जाते थे
और आत्मघाती शर्मीन्दगी में अपनी मुट्ठियाँ चबाने लगते थे
तो बेहूदे लोग उनके डरावने डूबे भविष्य
और खून-कीचड़ से लिथड़ी ज़िन्दगी की बाबत खीं-खीं कर हंसते थे

उफ़ ! इस धरती पर मैं ऐसे वक़्त में रहता था
जब एक नन्हें-मुन्ने की माँ होना एक अभिशाप था
जब गर्भवती औरतें अपना हमल गिराकर ख़ुश होती थीं
ज़िन्दा इनसान क़ब्र की लाशों से रश्क करते थे.
जबकि उनकी मेज़ों पर रखे ज़हर के प्यालों में झाग उठते थे

उफ़ ! इस धरती पर मैं ऐसे वक़्त में रहता था
जब कवि तक ख़ामोश हो गए थे
और फिर एक बार हम
एक पुरातन भयावह आवाज़ की उम्मीद में मुंतज़िर थे
किसी ने ऐसे ख़ौफ़ के लिए कोई ज़ेब बद्दुआ भी नहीं दी थी
केवल पैगम्बर इयाह नबी दे सकते थे
जो भयानक लफ़्ज़ों के उस्ताद थे

विनोद दास द्वारा अँग्रेज़ी से अनूदित