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रेत का घर / नित्यानंद नायक / दिनेश कुमार माली

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रचनाकार: नित्यानंद नायक (1942)

जन्मस्थान: चिरोल, बालेश्वर

कविता संग्रह: विदीर्ण मराल(1977), त्रस्त पदमासन(1983), भोर आकाश(1989)


सपनों में खोए रंगीन मोती जैसे चमकते
आंसुओं में क्या देखते हो ?
फेरी वाले के रंग-बिरंगे गुब्बारों को देखकर
क्या सोचते हो ?
दो, लाकर दो। लहरें आ जाएँगी ।

किंतु लहरें नहीं आने पर शाश्वत समय के
कठोर हाथ की मुट्ठी से चित्र बनाते चित्रकार
दुख की बंसी बजाते बांसुरी-वादक
अधखिले फूल, आकाश में उदय होते सूर्य- चंद्र
अधबनी दीमक की बॉबी, मधुमक्खी का छत्ता और हमारा
यह रेत का घर सभी स्थिर हो जायेंगे !
सभी असंपूर्ण रह जायेंगे !

अरे सुन ! अद्भुत स्वर सुनाई देता है झाऊँवन के उस पार से ,
पहाड़ के खोल से या समुद्र के आर-पार से।
बहुत दिन पहले से गुमशुदा मृत घोषित
मछुआरे के संग
इस तरह सारी दुनिया के जंजालों में
वही विचित्र स्वर सुनाई पड़ता है अनिवार्य रूप से।

मुझे लगता है भरी दुपहर में
खाली सड़क पर दो थके पांव
एक पेड़ की छाया में रुक जाने पर
राह नहीं मिलती लौट जाने की।
अचानक ठंडी हवा के झोंके से मिलती सांत्वना
'रास्ता अब थोड़ा है।'
उठती है हंसी वैशाख महीने की नदी की तरह
सूख जाती है धीरे-धीरे होठों के किनारे
या जैसे बहुत दूर, समुद्र के बीचोंबीच
थका हुआ धैर्यहीन पक्षी
छोड़ देता है लौटने की आशा
वरन सोचता है बेहतर होगा
समुद्र में गिरकर पहुंच जाए किनारे
लहरों के साथ कल की सुबह
(2)

घर उजड़ जाता है
लहर, वर्षा या तूफान से
या किसी अदृश्य हाथ के कपट-स्नेह में
उसके लिए तो बना बनाया घर लहुलूहान
सारे जाले साफ, बच्चों के पढ़ने का घर
और भगवान की खटोली साफ
फूलदान, फोटोग्राफ और कुंड में
खिलते फूलों को देखने या
बगीचे में फल के पेड़ लगाते समय
ध्यान -मग्न मुद्रा में बैठने

लहरों की टकराहट से रेत खिसकते समय
दुख खत्म हो रहे होंगे, इकट्ठे हो रहे होंगे।
छाती फूल रही होगी हर्ष से
प्रशस्त भी हो रही होगी
चूना गिर रहा होगा दीवारों से
शरीर भी बन रहा होगा शक्तिशाली
उस समय,
लहरें नहीं आने पर
सारे दुख
अंतहीन बसंत के मुग्ध इलाके में
शरीर, सपनें और संभावनाएं सारी
ठंडी होगी हर पल।

मैं और नहीं खोजूंगा चांदनी रात का दीर्घ -निश्वास
मैं और नहीं देखूंगा पत्ते पीले पड़ते
सूखते और नई कोपलें
आकाश में लालिमा फैलाते
और खिले फूल जमीन पर गिरते।