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रेत की ऊँची लहर है / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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यह शहर कैसा शहर है
रात इतनी
कह रहा है - दोपहर है

हाथ में लेकर मशालें
चल रहे हैं
पूछते हैं लोग -
घर क्यों जल रहे हैं

और महलों के सिरे पर खण्डहर हैं

जुगनुओं की पीठ पर है
बोझ भारी
ला रहे हैं
नये सूरज की सवारी

खुश बड़े हैं - पी रहे मीठा ज़हर हैं

धुआँ-देती मोमबत्ती
है पुरानी
जले जंगल की
वही पिछली कहानी

मरी मछली- रेत की ऊँची लहर है