भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेत पर जितने भी नविश्ते हैं / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
रेट पर जितने भी नविश्ते हैं
अपने माहौल के मुजल्ले हैं
कौन जाने कहाँ दफीने हैं
अपने पास तो सिर्फ़ नक्शे हैं
सूरतें छीन ले गया कोई
इस दफा आईने अकेले हैं
ख़्वाब ख़ुशबू ख़्याल और ख़दशे
एक दीवार सौ दरीचे हैं
दोस्ती इश्क़ और वफ़ादारी
सख्तजाँ में भी नर्म गोशे हैं
पढ़ सको तो कभी पढ़ो उन को
शाख़-दर-शाख़ भी सफ़ीहे हैं
जुगनुओं के परों से लिक्खे हुए
जंगलों में कई जरीदे हैं