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रेत में नहाया है मन ! / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
रेत में नहाया है मन !
आग ऊपर से, आँच नीचे से
वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे
इन तटों पर कभी धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन !
घास सपनों सी, बेल अपनों सी
साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर
भैरवी में कभी, साध केदारा
गूंगी घाटी में, सूने धारों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन !
आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में
धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी
होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे
देख हिरनी लजी साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन !