भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेल-इंजन / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
लोहा
चिग्घाड़ता है
हाथी के बोल से
आए हुए इंजन की शक्ल में
वायुमंडल
काँप-काँप-काँप गया;
टूट-टूट-टूट गया-
काँच के टुकड़ों में
चारों ओर
उड़े-उड़े आए
और
फैल गए
धरती के चारों ओर टुकड़े
आए और मुझ पर भी गिर पड़े-
दर्द-दर्द देह हुई,
आत्मा कराह हुई।
रचनाकाल: १५-०७-१९७७
(घर के पास रेलवे स्टेशन है। रात १०:३० बजे इंजन की सीटी सुनकर)