भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेल पर चिलिका-दर्शन / गोपबंधु दास / दिनेश कुमार माली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: गोपबंधु दास(1877-1928) “उत्कल-मणि”

जन्मस्थान: भार्गवी कूल,सुआन्डो, पुरी

कविता संग्रह: अवकाश-चिंता(1999) वंदीर आत्मकथा(1923), धर्मपद(1924), कारा कविता(1928)


एक पल जरा रुको, ए वाष्पीय शकट
देखूँ मैं जरा चिलिका का चारु चित्रपट
चित्रकला का नहीं मुझे जरा अनुभव
क्या सही,विश्व में ऐसी छबि संभव  !
नीली लहरें धीरे/धीरे उठती गिरती
लगती किसी सुंदर स्वप्न/ज्योति
तैरते चिलिका जल में पक्षी/दल
प्रतिबिम्बों में दिखते वे युगल
घोर/नाद ज्यों ही उठता नभ
उड़ जाते सौ/सौ पक्षी चिलिका गर्भ
सत्य जैसे मन में न हुआ प्रतीत
पलक में हो गया वह दृश्य तिरोहित
दूर ले जा रहा वह निष्ठुर यान
मध्य में आ रहे तरु शिला व्यवधान
पल में छुपते पल में दृश्यमान
स्वप्नमय प्रिय प्रतिमा समान
कहीं नीला कहीं सुश्यामल
कहीं धूमिल कहीं धवल
नाना स्थान नाना वर्ण दीर्घकाया
दिखाओ चिलिका ! करती हो अद्भुत माया
देवी वीणापाणि शाश्वत सेवक
कवि राधानाथ सुषमा ग्राहक ।
घूमा मैं बहु जगह विशाल भारत
नद/नदी/मरु/कानन पर्वत
देखा प्रकृति का विविध प्रकाश
किंतु शोभालुब्ध शुद्ध अभिलाष
सुख शांति प्रीति कहीं पर नहीं
मिली केवल तुम्हारे पास यहीं
उत्कल की तुम सौंदर्य की खान
सारस्वत नेत्रों का तुम एक अभिमान
सुंदर शिल्पी हाथों बनी तुम सुंदर हार
समर्पित उत्कल भारती के गले का उपहार
हर दिन तुम्हारा रहेगा रुचिर
देख भावुक आएंगे तुम्हारे तीर
मैं अधम, मुझमें भाव/प्रवणता नहीं
इन प्राणों में फिर भी पता नहीं
देखने को हमेशा प्रकृति सौंदर्य व्याकुल
पाया जिसे मैने केवल तुम्हारे कूल
देखूंगा तुम्हारी शोभा अकेले एक दिन
कर्म बंधन निभाते यह बात आई मेरे मन
इस समय के अंत में हुआ था एक सुयोग
आह ! मगर कर न सका मैं उसका भोग
रहता जंजाल इस विषम जगत में
संसारी सहोदर बांधव संगत में
मेरी इच्छा थी संग चलेगा कोई जन
पर समाज में निज का नहीं निज मन
बैठा कई बार नीरव निर्जन
कल्पना में देखा तुम्हारा रूप नयन
तुम्हारी नीली तरंगों से खेला निरंतर
अनुपम दिव्य हिरण्मय कर
सीने के चारु शक्रचाप तुम्हारे
नाचते शत/ शत कल्पना में मेरे
कल्पना चित्रित तुम्हारा सुंदर तन
कभी नहीं हटेगा उससे मेरा मन
आज, चिलिका ! कल्पना प्रभाव में
अतीत का सुख स्मृति समुच्चय
हर्ष खेद में आकुल हृदय
तुम्हारे मधुर नाम में जड़ित
गौरव युक्त उत्कल का अतीत
कहाँ है उत्कल की वह सुकृत राशि ?
जिसके प्रभाव में बंधे थे प्रभु ब्रह्म/राशि
स्वयं निरंजन जगत ईश्वर
लेकर सैनिक नर कलेवर
उत्कल के यश प्रतिष्ठा रक्षण में
खड़े हुए घोर समर प्रांगण में
कहाँ वह सौभाग्य, कहाँ वह सुकृत
पवित्र उत्कल, आह, आज पूर्ण विकृत !
आर्य, धर्म, क्षेत्र ,पूत, नीलांचल
खत्म हो गया सर्व कर्म/ धर्म बल
अब नहीं मुख पर पहले जैसी पुण्यकांति
अब नहीं हृदय में स्वर्ग जैसी धर्मजात शांति
जीवन में पवित्र उत्साह शक्ति
उत्कल की आह कैसी घोर दुर्गति !
कहाँ गए पहले जैसे ओड़िया नांव/पोत
कहाँ गए नाविकों के उद्दाम संगीत स्त्रोत
जलपथ पर कहाँ विदेश गमन
कहाँ पूर्व ख्याति, कहाँ पूर्वधन।
कहानी बनकर रह गए सब आज
साधव वधू और वंदित जहाज
पथरीला तुम्हारा दृढ़ रम्यतट
दुर्गम पर्वत अभेद्य संकट
खिलाते थे जिन्हें लेकर निज देह
उत्कल के असंख्य वीर, शिशु, स्नेह
हैं वही जंगल और वही विपिन
हैं तुम्हारी शिला सुदृढ़ पुलिन
पर, कहाँ आज अब वह वीरता  ?
ओड़िया जाति की पूर्व जातियता।