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रेल / निशान्त जैन
Kavita Kosh से
छुक-छुक करती आती रेल,
सबके मन को भाती रेल।
गार्ड ने झंडी हरी दिखाई,
रेल ने जब रफ्तार बनाई।
लगता जैसे भागते पेड़,
कहते मुझको न तू छेड़।
हवा से करती बातें रेल,
मन को खूब लगाती रेल।
सूरज कहता जाऊँ मैं,
पास न तेरे आऊँ मैं।
चाचू सूरज नाराज हैं,
थोड़े तुनकमिजाज हैं।
सरपट दौड़ी जाए रेल,
कैसे खेल दिखाए रेल।
नदी-पहाड़ हैं बड़े-बड़े,
कभी न हिलते अड़े-खड़े।
इतने यात्री ठसे पड़े,
ऊपर भी कुछ चढ़े-खड़े।
कितने यात्री ढोए रेल,
कुछ न फिर भी बोले रेल।
अगला स्टेशन ज्यों आया,
रेल ने पों-पों राग बजाया।
समझा मैं अब आया घर,
उतरें हम सब जल्दी कर।
सबको गले लगाती रेल,
थकती न अलसाती रेल।