भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रे मन हरि-सुमिरन करि लीजै / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

  (राग खमाच)

 रे मन हरि-सुमिरन करि लीजै॥-टेक॥
 हरि को नाम प्रेम सों जपिये, हरि-रस रसना पीजै।
 हरिगुन गा‌इय, सुनिय निरंतर, हरि-चरननि चित दीजै॥
 हरि-भगतन की सरन ग्रहन करि, हरिसँग प्रीति करीजै।
 हरि-सम हरि-जन समुझि मनहिं मन तिन कौ सेवन कीजै॥
 हरि केहि विधि सौं हम सों रीझैं, सो ही प्रश्र करीजै।
 हरि-जन हरि-मारग पहिचानै, अनुमति देहिं सो कीजै॥
 हरि-हित खा‌इय, पहिरिय हरि-हित, हरि-हित करम करीजै।
 हरि-हित हरि-सम सब जग से‌इय, हरि-हित मरिये-जीजै॥