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रोक न पाओगे / महेन्द्र भटनागर

जग में आज सुनायी देती आवाज़ नयी,

जिसकी प्रतिध्वनि भू के कण-कण में गूँज गयी !

समझ गये शोषित-पीड़ित जिसका अर्थ सभी,

अब तो जन-शक्ति-विपथ के साधन व्यर्थ सभी !

मूक जनों को आज गिरा का वरदान मिला,

श्रमजीवी-जन को अपना प्यारा गान मिला,

युग-युग की अवरुद्ध उपेक्षित नव-राह खुली,

जन-पथ के सब द्वार खुले, जग-जनता निकली !

विजयी घोषों से फट-फट पड़ती है तुरही,

काँप रहा है आज गगन, काँपी आज मही !

विशृंखल; वर्गों की निर्मित सारी कड़ियाँ,

देश-काल की अब सीमा मिटने की घड़ियाँ !

नक़ली दीवारों ! नहीं रुकेगी नयी हवा ,

बस, कर दो राह कि बचने की है यही दवा !

जर्जर संस्कृति के रक्षक भागो ! आग लगी !

इन अंगारों से तो लपटों की धार जगी !

इसको और हृदय से चिपटाना घातक है,

आसक्ति, तुम्हारी ही काया की भक्षक है !

1948