रोज़ नया इक ख़्वाब सजाना भूल गए / सिराज फ़ैसल ख़ान
रोज़ नया एक ख़्वाब सजाना भूल गए
हम पलकों से बोझ उठाना भूल गए
साथ निभाने की कसमें खाने वाले
भूले तो सपनों में आना भूल गए
उसे भुलाने की इतनी कसमें खाईं
कि हम अपना पता ठिकाना भूल गए
नज़र मिलाना जबसे तुमने छोड़ दिया
हम लोगोँ से हाथ मिलाना भूल गए
शहर में आकर क्या पाया कुछ याद नहीं
गाँव की गलियाँ वक़्त पुराना भूल गए
मंज़िल तक जिन लोगों को पहुँचाया था
वही हमारा साथ निभाना भूल गए
पीने वाले मस्जिद तक कैसे आए
हैरत है ग़ालिब मैख़ाना भूल गए
झूठों ने सारी सच्ची बातें सुन लीं
सूली पर मुझको लटकाना भूल गए
ज़रा जवानी ढली तो दुनिया बदल गई
वो नज़रों से तीर चलाना भूल गए
तुमने जबसे छत पर आना शुरु किया
लोग उतरकर नीचे जाना भूल गए
चकाचौंध में बिजली की ऐसे खोए
क़ब्रों पर हम दिये जलाना भूल गए
तेज़ धूप से कुछ ऐसा घबराए वो
औरों के घर आग लगाना भूल गए
दर्द पे कुछ लिखने की मैंने क्या सोची
मीर भी अपना दर्द सुनाना भूल गए
सुकरात को देकर ज़हर उन्होंने मार दिया
बातों को वो ज़हर पिलाना भूल गए
भला ग़रीबों से क्यों तुमको नफ़रत है
लगता है तुम बुरा ज़माना भूल गए
अँग्रेज़ी का भूत चढ़ा ऐसा सिर पर
बच्चे हिन्दी में तुतलाना भूल गए
वह भी पहचान नहीं पाया हमको
हम भी उसको याद दिलाना भूल गए