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रोज़ मुझको न याद आया कर / चाँद शुक्ला हदियाबादी
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रोज़ मुझको न याद आया कर
सब्र मेरा न आज़माया कर
रूठ जाती है नींद आँखों से
मेरे ख़्वाबों में तू न आया कर
भोर के भटके ऐ मुसाफ़िर सुन
दिन ढले घर को लौट आया कर
दिल के रखने से दिल नहीं फटता
दिल ही रखने को मुस्कुराया कर
राज़े दिल खुल न जाए लोगों पर
शेर मेरे न गुनगुनाया कर
ख़ुद को ख़ुद की नज़र भी लगती है
आईना सामने न लाया कर
रेत पे लिख के मेरा नाम अक्सर
बार बार इसको मत मिटाया कर
दोस्त होते हैं `चाँद’ शीशे के
दोस्तों को न आज़माया कर