भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोज-रोज के ई विरोध / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
Kavita Kosh से
रोज-रोज के ई विरोध तहर से
सहल ना जाता हे प्रभु अब हमरा से।।
दिन-पर-दिन करज के बोझ
हमरा पर नित बढ़ते जाता।
सोच-सोच के हरदम हे हरि
चंचल मन हमार घबराता।।
सुंदर-सुभेंदर भेस बना के,
तहरा सभा योग्य बनठन के,
ठीठे सभा मध्य में आके,
सभे गइल परनाम बजाके।
हम कटिहर कपड़ा में बानीं।
लाजे मुँह लुकावत बानीं
मान बची ना, जानत बानीं
अलग-विलग बउआइत बनीभें।
दिल के दरद कहाँ ले कहीं
गूंगा बनल हाय हम रहीं।
डरे ना कुछ तहरा से कहीं
पड़े ना साहस, सब हम सहीं।
स्वामी अबकी मत लवटावऽ
अपमानन से दूर हटावऽ
कीनल दास समझ अपनावऽ
अपना चरनन तर बइठावऽ