भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोटियाँ / पवन करण
Kavita Kosh से
उनकी भूख में जितनी रोटियाँ हैं
उनमें से कुछ को बेला जाए
इतनी देर उनसे तैयार हो सकें
बच्चों के बस्ते शब्द ओैर आग
उन तक पहुँचने वाली रोटी की
गणना तब्दील हो उन ईटो में
जिनसे खड़ी हो सकें दीवारे
किसी-किसी रोटी की पहचान
इतनी तन जाए कि ठहर सके
उन दीवारों पर छतों-सी
कुछ की गंध उनका ओढ़ना हो
कुछ से निकलती भाप हो बिछौना
रोटियाँ वैसी होने दी जाएँ
उससे पहले ही उन्हें उनकी
भूख के आगे तब तक
नहीं पटका जाए जब तक वे उनमें
अपना चेहरा न देख लें ।