भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोते-रोते रात सुला दी / बलबीर सिंह 'रंग'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोते-रोते रात सुला दी,
भोर जगाया गाते-गाते।

यह कैसी गलती कर डाली,
किसने मेरी नींद चुरा ली।

पंख थके मन के पंछी के,
स्वप्न-संदेसे लाते-लाते।

रोते-रोते रात सुला दी,
भोर जगाया गाते-गाते।

दुनिया की दूरी से बढ़ कर
अपनी मजबूरी से लड़ कर।

सब कुछ खोकर हानि उठा ली,
लाभ लुटाया पाते पाते।?

रोते-रोते रात सुला दी,
भोर जगाया गाते-गाते।

मुझको भी सपने आये थे,
उनमें कुछ अपने आये थे।

आते-आते आग लगा दी,
नीर बहाया जाते-जाते।

रोते-रोते रात सुला दी,
भोर जगाया गाते-गाते।