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रोपी जा पौधा कलयान के / रामकृष्ण

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काटऽ मत दुसमन बन रुखवन के जान के,
करतो रच्छा, फिर देह के, परान के? ॥
नया-नया करखाना धुआँ-जहर उगले,
जंगल-जंगल मसाल करनी के सुलगे।
झामर हो सूख रहल एक बून मान के।
हरिअर-पीअर धरती लुहवर केकरा से,
आहर-पोखर कुइयाँ केकरा भर आसे।
मौसम के सरसौनी मन बोलऽ कइसे,
नेह के सँघतिअन सन का डोलत सान से॥
नान्ह-नान्ह रुख-बिरीख बड़ा फेड़ बन के,
फूल, फरे, लािरा के ललचावे मन के।
छाँह सूध, हवा सूध बादर के पानी
सब कुछ तो ओकरे से, धन हे, सनमान हे॥
तीन परत धरती के ऊपर के झकना,
चौतरफा घेर घार कर हमर अँगना।
सूरज के रौदारी, जाड़ा आउ बरखा,
छान-छून पसरावइ खेत धान-पान के॥
जगलो बुधगर समाज जगलन विगयानी,
सोधित हथ माटी, जल, हवा अनुसंधानी।
कुछ तो हे करतब हमनियों के आवऽ,
मिलजुल के रोपी जा पौधा कल्यान के॥