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रोबोट / किरण अग्रवाल
Kavita Kosh से
और एक दिन नींद खुलेगी हमारी
और हम पाएँगे
कि आसमान नहीं है हमारे सिर के ऊपर
कि प्रयोगशालाओं के भीतर से निकलता है तन्दूरी सूरज
कि पक्षी अब उड़ते नहीं महज फड़फड़ाते हैं
और पेड़ पेड़ नहीं ठूँठ नाम से जाने जाते हैं
कि कोख कोख नहीं जलता हुआ रेगिस्तान है
और हृदय सम्वेदन शून्य, बर्फ़ उगलता एक शमशान
और एक दिन डिक्शनरी खोलेंगे हम
और देखेंगे
कि ’आज़ादी’ शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं है
कि माता-पिता, प्रेम, दया जैसे उद्गार
औबसलीट हो गए हैं अब
और तब बदहवास से
डिस्क में बंद अतीत को स्क्रीन पर टटोलते
हम जानेंगे
कि हम इन्सान नहीं रोबोट हैं