भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रौशनी का रुखसत होना / योगेंद्र कृष्णा
Kavita Kosh से
हम भूल चुके हैं
उस दुःख को
जब एक दिन
खिड़की से
चांद की रौशनी को
हमेशा के लिए
रुखसत होते हुए देखा था
हम भूल चुके हैं
उस सुख को भी
जब हर रात
खिड़की से दबे पांव
आती थी चांदनी
और देर तक
जैसे सहलाती थी
आत्मा की परतों के भीतर
रोज खुलते नए घावों को...
हम भूल चुके हैं
उस दुःख को
जब अचानक एक दिन
गायब हो गईं
हमारे कमरे से सारी खिड़कियां
और झर गए
कमरे के बाहर खड़े
पेड़ों से सारी पत्तियां
जहां रातों को
कुछ देर
ठहर जाया करती थी चांदनी
हम भूल चुके हैं
उस सुख को भी
जो सिर्फ खुली खिड़कियों
पत्तियों और रौशनी
से धीरे धीरे छन कर
सीधे हमारी आत्मा की परतों में
उतरता था...