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रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी / ज़फ़र गोरखपुरी

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रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी
देख लूँ जी भर के मंज़र आख़िरी

मैं हवा के झक्कड़ों के दरमियाँ
और तन पर एक चादर आख़िरी

ज़र्ब इक ठहरे हुए पानी पे और
जाते जाते फेंक कंकर आख़िरी

दोनों मुजरिम आइने के सामने
पहला पत्थर हो कि पत्थर आख़िरी

टूटती इक दिन लहू की ख़ामुशी
देख लेते हम भी महशर आख़िरी

ये भी टूटा तो कहाँ जाएँगे हम
इक तसव्वुर ही तो है घर आख़िरी

दिल मुसलसल ज़ख़्म चाहे है 'ज़फ़र'
और उस के पास पत्थर आख़िरी