भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रौशनी / विज्ञान प्रकाश
Kavita Kosh से
एक दिन रस्ता बदलकर
वर्तमान को झटक कर
रौशनी से दूर हटकर
अहाते से चाँद झाँका।
दबा ठिठका दूधिया सा
कर रहा नभ में वह खेला
बादलों में छिपता निकलता
साथ सितारों का मेला।
चढ़ उठा वह आसमाँ में
जैसे कोई नाव खेता
मंद गंगा के प्रवाह
में कोई समाधि लेता।
और कितने झींगुर मिलकर
गूँज करते नभ जगाते
लालटेन की लौ धधकती
हम नयन की लौ जलाते।
देखते चढते उतरते
रोज ही कितने सितारे
कुछ कही से पहचाने से
तो कुछ लेकर नाम हमारे।
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
दूर दिखती नभ में फैली
श्वेतवर्णा गंगा निर्झरी
कृष्ण नभ में यमुना मैली।
देखते कब नयन भरते
पलक ये भारी-सी होती
रौशनी कब तक छिपेंगे
गगन पर बिखरे ये मोती।