भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लकड़ी का धुला फ़र्श / ग्रिगोरी बरादूलिन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभी-अभी धोया गया है फ़र्श
लीसे की उसमें से आ रही है महक
लगा जैसे अभी-अभी हुई हो बारिश
अभी-अभी चहके हों उदास पक्षी ।

रसभरी के झाड़ में दम घुटने लगा है
सहमे-सहमे तना खोद रहा है कठफोड़वा-
पोंछ लो अपने पाँव, आहिस्ता से चलो
चरमरा रहा है फ़र्श...हिलने लगी हैं पेड़ों की चोटियाँ... ।

रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह