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लकड़ी से उगी / नबीना दास / रीनू तलवाड़

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चलती हूँ इस सड़क पर तुम्हारे सँग मौसम
गर्मियों-सर्दियों में बस के उसी रूट पर
अपने सर दुपट्टों से ढाँके
तुम्हारा जामुनी मेरा रात की रानी-सा मद्धिम
और झीनी जाली की बुनावट में से
हम एक-दूसरे को देखते हैं मौसम, झलक भर ।

मैं रूकती हूँ महरौली की सीमा पर बुझाने अपनी
प्यास अचानक आई गर्मियों की आन्धी की धूल
लिए हुए अपनी आँखों में; तुम भी रूकती हो मौसम
करती हो इशारा अपनी चम्पई उँगलियों से पीले
नीम्बुओं की ओर जिन्हें निचोड़ता है नीम्बू पानी वाला ।

हम लगभग साथ-साथ भरते हैं नपे हुए घूँट
लज्जित होते हैं आख़िर में खींचे घूँटों से,
देखते हैं एक-दूसरे को, मेरी बिन्दी दमकती है,
तुम्हारे झुमके शर्माए-से टिके हैं तुम्हारे गालों पर ।

मौसम, क्या तुम्हें डर लगता था कि मेरा भाई
बान्धता था अपने सर धर्म का केसरी-लाल रुमाल और
तुम्हारा रिश्तेदार हरे मस्जिद की रखवाली करता था
जबकि हम दोनों काँपती थीं उन अभिशप्त नारों के तले —
क्या तुमने गौर किया मौसम हम दोनों ने थामी थीं
हाथों में अपनी-अपनी कहानियाँ, ठीक तभी जब
हमारे घर बने थे आग के गोले हमारी देहें लकड़ी ।

मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : रीनू तलवाड़