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लकीरें बाप की पेशानी की गर यार पढ़ लोगे / सूरज राय 'सूरज'

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लकीरें बाप की पेशानी की गर यार पढ़ लोगे।
तो घर की आँसुओं से तर हर इक दीवार पढ़ लोगे

तुम्हारी जीत में सबसे अहम मैं ही सिपाही हूँ
गिरा जिस पल भी मैं उस पल तुम अपनी हार पढ़ लोगे

ज़बुाँ से और किताबों से जुदा भाषा है दुनिया की
दिखेगी आईने-सी वह जो चेहरे चार पढ़ लोगे॥

ग़ज़ब एहसास है पढ़ ले जिसे अँधा भी अनपढ़ भी
यक़ीं आ जायेगा तुम जब किसी का प्यार पढ़ लोगे॥

तुम्हारा नाम लिख मैंने हथेली भेज दी तुमको
लकीरों पर लिखा क्या ख़त मेरा इक बार पढ़ लोगे

नज़र की देखने की हद बदन तक ही मुक़र्रर है
कभी दिल से ज़रा समझो मेरा किरदार पढ़ लोगे।

किसी दिन सुबह मेरी दोपहर न देख पायेगी
तुम्हारा क्या है तुम तो शाम का अख़बार पढ़ लोगे

तुम्हे महसूस ये होगा वह फ़ि तरत से भी है "सूरज"
कभी जलते हुए उसके अगर अशआर पढ़ लोगे॥